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________________ मूलाराधना १२७२ दूरेण साधुसत्थं छंडिय सो उप्पधेण खुपलादि ॥ सेवदि कुसीलपडि सेवणाओ जो सुत्तदिठ्ठाओ || १३०६ ॥ साधुसार्थ स दूरेण व्यक्त्वोन्मार्गेण नश्यति ॥ किया यांति कुशलानां या सूत्र प्रतिदर्शिताः ।। १२५१ ।। बिजयोवा-रेण साधुत्थं दूरात्साधुषार्थे । डिय त्यक्त्वा । सो सपदि उन्मार्गेण पलायते । सेवदि कुसीलाओ सेवते कुशलप्रतिभवनाः । जीवः सुताओ सूपनिर्दिशः ॥ कुशीलकियासेवनापकारमाह्— युलारा-- स्पष्टम् || अर्थ---भ्रष्ट मुनि दुरसे ही साधुसार्थका त्यागकर उन्मार्गसे पलायन करता है. तथा आगममें कहे हुए कुशीलनामक भ्रष्ट मुनीके दोषोंका आचरण करता है इंदिय कसाय गुरुगतणेण चरणं तणं व परसंतो ॥ घिसो भवित्ता सेवदि हु कुसीलसेवाओ | १३०७ ॥ कषायाक्षगुरुत्वेन वृत्तं पश्यंस्तृणं यथा ॥ सेवते हवको भूत्वा कुशीलविषयाः क्रियाः ।। १३५२ ॥ (इति कुशीलः ) विजयोदया - इंदियकसाय गुरुपत्ता इंद्रियकषायपरिणामानां गुहत्येन चरणं तणं व पस्तो चरणं गुणमिव पश्यन् । चिसो भविता अच्छीको भूत्वा सेवदि सेवते कुशीलसेघाः ॥ कुसीला ॥ कुशीलक्रिया सेवानिमित्तमाद मूलारा - द्विंसो निर्लनः निर्धर्मः इत्यन्ये ॥ कुशील || अर्थ — इंद्रिय के विषयोंमें और कषायके तीव्र परिणामोंमें तत्पर हुए ये भ्रष्टमुनि चारित्रको तृणसमान समझकर निर्लज्ज होकर कुशीलका सेवन करते हैं. कुशीलमुनि वर्णन समाप्त. आवार ६ १२७९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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