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भावासः
मूलाराधना
....... . वामन तिति पशांसि लोके । बानेन पैराण्यपि यान्ति माशम् ।।
'परोऽपि बंधुत्यमुपैति वानात्तस्मात्सुवान सततं प्रदेयम् । चक्रधरावयोऽपि प्रगतिमायाम्ति तपोदधिणानाम् । परलोके अद्वितं भवान्तरभाषिदुःख मरकगती हि, तिर्यक्त्यं च, परलोके हित नि(तिमुह, तदेतत्सकलं नवघोधयति जैनी भगवती मारती ।।
आत्महितपरिझा व्याचष्टेमूलारा--तधिया तथाभूताःआत्महितपतिज्ञा नामके गुणका वर्णन--
अर्थ-ज्ञानके प्रभावसे जीव, अजीच, आस्रव, बंध, संघर, निर्जरा और मोक्ष ऐसे सात पदार्थोंका सत्य स्वरूप जाना जाता है. तथा इसके सामर्थ्यसे इहलोकमें और परलोकमें हिताहितका भी परिज्ञान होता है.
शंका- आद हिटगडण्णा इस रूट में हितहाटी परित्रात भरलेना सूचित किया गया है. जीवादिकोंका परिज्ञान उपयुक्त शब्दसे सूचित नहीं होता है. अतः पूर्वमें कहे हुए हितका स्वरूप प्रथम कहकर ही इतरोंका स्वरूप कहना चाहिये था. यह तो आपका अनुचित कथन हुआ?
उत्तर-आत्माहत प्रतिज्ञा इस शब्द का अर्थ या समझना--यहाँ द्वंद्वसमास है अर्थात् ' आत्मा च हितेच आत्महिते 'एला आत्मादित्त शब्दका विग्रह होता है. अथान आत्मा और हित इन दोनोंका जा ज्ञान उसको आमहितप्रतिज्ञा कहते हैं. 'आत्मनो हित आत्माका हित एसा पाठीतत्पुरुष नमाम यहां समझना भूल है.
- शंका-आत्महितप्रतिज्ञासे जीवके हितका ज्ञान होना ही अभीष्ट रहा, अजीवादिकोंके ज्ञानकी आवश्य - कता न रही ?
उत्तर-आत्मा शब्द उपलक्षणात्मक है अतः उसके साथ अजीवादिकोंका भी ग्रहण कर सकते हैं, 'जीवाजीवास्रबंधसंबरनिर्जरामोक्षास्तत्वं ' इस सूत्रमें प्रथम जीवका निर्देश किया है. इसलिये वह प्रसिद्ध है. प्रसिद्धके साथ अप्रसिद्धकाभी उपलक्षणसे ग्रहण होता है अतः अजीवादिकका भी आत्महितप्रतिज्ञा इस शब्दसे ग्रहण कर सकते हैं.
अथवा केवलज्ञान अनंत पदार्थों को जानता है, वह स्वयं कर्मका नाश फरफे उत्पन्न हुआ है, पूर्णताको प्राप्त हुआ है, विस्तीर्ण है और कर्ममलसे रहित होनेसे निर्मल है. अवग्रह, ईहा वगैरे विकल्पोंस
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