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मूलाराधना
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गहित और सर्वथा सुखमय है. ऐसा केवलज्ञानका आचार्य स्वरूप कहते हैं. सुखपदार्थ ज्ञानरूप ही है, वह आन्मा का आस्तविक हित है. अतः वह यहां हितशब्द से संगृहीन होता है. तथापि चेतना यह जीवका स्वरूप है व चैतन्य रूप अवस्था है. उसको जानने के लिये आत्माको जानना आवश्यक है. कमॉका संपूर्ण नाश होना ही मोक्ष है. उसका स्वरूप अजीय पदार्थको जाने विना समझ में आ नहीं सकेगा. सूक्ष्म पुद्गल ही द्रव्यकर्मरूप बनता है. उसका नाश होनाक्षी मात्र है, मोक्ष बेधपूर्वक होता है, यदि कर्मबंध न होगा तो मोक्ष किसको होगा. अर्थात् जो आत्मा कर्म बद्ध है वही कोका नाश कर स्वतः मुक्त हो जाता है, यह बंधी कासबके विनर होता नहीं. संवर और निर्जरा मोक्षके उपाय है.
अहित शम्दका अर्थ यदि दुःख ऐसा है तो वह इहलोकसंमंधी दुःख अनुमबसिद्ध है ही उसको जतलानेकेलिये जिनवचनकी क्या आवश्यकता है । अहितका जो कारण है वह यदि अहित शन्दको पाच्य है तो कर्म ही अहितका कारण है ऐसा मानना पडेगा. उस कर्मका इसही माथामें अजीब शब्दसे ग्रहण किया है. यदि हिंसादिक दुःखके परंपरा कारण हैं और वे अहित शब्दसे संगृहीत होते है ऐसा कहते हो तो यह भी कहना युक्तियुक्त नहीं है. क्योंकि हिंसादिक कारणोंका आसव में अन्तभाव होता ही है, इस शंकाका उत्तर आचार्यने इस प्रकार दिया है
अनुभवमें आया हुआ भी दुःख अज्ञजन भूल जाते हैं इसीलिये सन्मार्गके प्रति गमन नहीं करते हैं. ऐसे लोगोंको जिनवचन दुःखोंकी स्मृति दिलाता है. अर्थात् वह मनुजमवमें क्या क्या आपदायें आती है उनको दिखलाता है. जैस-जुगुप्सितकलम-हीन कुलमें उत्पत्ति होती है. और वहां नानाविध रोगरूपी सर्पके दंशसे अनेक आपचियां उपस्थित होती हैं. दारिन्ध, कुरूपता, बंधुरहितपना, अनाथपना, ये अवस्थायें प्राप्त होती हैं. इच्छित धनकी प्राप्ति होना, परांगनाका लाभ न होनसे मनमे झरना, श्रीमान लोगोंके द्वारा कुत्सित कार्य करनेकी आज्ञा होना, उनकी गालियां सुनना, उनके द्वारा किया गया अपमान, पीटे जाना, परवशता इत्यादि दुःखोंको महन करना पड़ता है. इत्यादि दुःखोंका स्वरूप जिनवचन अज्ञ जीवोंको बतलाता है.
असे अरण्यकी वनस्पतिजन्य औषधि हित करती है बैंस इस लोकम दान, तप बगैरह कार्य हितके कारण हैं अतः उसको हित कहते हैं. दानादिक पुण्यकार्यमें जो तत्पर रहते हैं उनकी लोक स्तुति और चंदना करते है, आगममें इस विषयमें ऐसा कहा है---