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मूलाराधना
भासः
दान देनेसे जगतमें दाताकी कीर्ति चिरस्थायी होती है. दानसे वैरका नाश होतर है. शत्रु भी मित्रताको शा हो. हैं . यो सामान देना चाहिये.
तपस्पी धन जिनके पास है उनको इंद्र चक्रवर्ती वगैरह महापुरुष वंदन करते हैं. हिमादिक पाप करनेसे परलोको दुःख भोगना पड़ता है. अर्थात् नरकगतीमें नरकायस्थामें दुःख ही दुःख भोगना पडता है. तिर्यम्गतिमें पशु होकर दुःख सहना पडता है. दानादिकस परलोको हित होता है. अन्तमें मोक्षसुख मिलता है. इन सब हिताहितोंका जिनश्वरकी पूज्य वाणी वर्णन करती है.
आत्महितापरिक्षाने दोषमाचष्टे
आदहिदमयाणतो मुज्झदि मूढो समादियदि कम्मं ॥ कम्मणिमित्तं जीवो परीदि भवसायरमणंतं ॥ १०२ ।। हिताहितमजानानो जीवो मुवति सर्वथा ।
मूढो गृह्णाति कर्माणि ततो भ्राम्यति संसृतौ ॥ १०३ ।। विजयोदया-यादहिदमयाणतो आत्महितमबुध्यमानः । मुज्झदि मुखति । अहित द्वितमिति प्रतिपद्यते मोहं । को दोष इत्यत आह-मूढो मोहवान् समादियदि समादत्ते । क कमेसामान्यशब्दोप्पय अशुभमतृत्तिाहाः । कर्म प्रहाणे को दोष इत्यत आइ-कम्मणिमिस कर्महेतुकं, जीवः परीदि परिभ्रमति । किं ? भबसायरम् भवसमुद्रं अणंनं अनन्तम् ॥
अत्महितापरिक्षाने दोषमान -
मृलारा-समादियदि समादने सगम्दान्मनोवाक्कायरादत्ते गृहाति । कम्म कर्म मोहदे तुकवादशुमं । परीदि पर्यन परिभ्रमतीत्यर्थः।
श्रात्मा और हितका यदि ज्ञान न हो तो क्या दोष उत्पत्र होगा इस प्रश्नका उत्तर
अर्थ-जिसको आत्माका और हितका स्वरूप ज्ञात नहीं हुआ है वह जीव मोहित होता है अर्थात् अहितको हित मानता है, मोहले वह अनंत संसारमें भ्रमण करानेवाले अशुभ कर्मका बंध कर लेता है. तात्पर्य
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