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आभास।
मूलाराधना १८३७
अंत्यविग्रहसंस्थानसशाकृतयः स्थिराः ॥ सुखदुग्नविनिर्मुक्ता भाविनं कालमासते ॥ २२१७ ।। तेषां कर्मव्यपायेन प्राणाः संति दशापि नो॥
न योगा भावतो जातु विद्यते स्पंदनादिकम् ॥२२१८ ॥ दिजयोदया-दशविमानां रामनामयंतामोवन भवति आस्पतिक सुखदुःस्वाभावः ॥ मुक्तात्मसंस्थान निर्णयार्थ माह---
मूलारा--जोगजहणम्मि मनोवाकायव्यापारपरिहारसगये । जीन पण जीवस्वरूपनिभरभृतं । एतां श्रीविजयो नेपाछति ॥
मुक्तस्य निमित्तामायादात्यंतिक प्राणानां सुखदुःखयोश्वाभावं भावयति--
मूलारा-सविधपाणाभावो पंचेंद्रियाणि मनोवाकायचलानि आयुरुच्छासश्च । अञ्चतं सर्वथा । विगदहस्स इंद्रियाधिष्ठानदेहामावादेन्द्रियिफे सुखदुःखे च मुक्तस्य न स्त इत्यर्थः ।।
अर्थ-मन वचन और शरीर इनके योगोंका त्याग करते समय घरमशरीर धारकोंके शरीरका जो आकार रहता है वही आकार पूर्ण स्वस्वरूप को प्राप्त हुए सिद्धों का रहता है. दम प्रकारके प्राण सिद्धों को नहीं रहते हैं अर्थात् पांच इंद्रिय प्राण, मनोबल, बचनबल, कायबल, आयुष्य, उपन्यास इन दस पाणोंका सिद्धपरमेष्ठी में अत्यन्त अभाव रहता है. इंद्रियोंको आश्रय देने वाला देह नहीं होनेसे इंद्रिय जनित सुख दुःखोंका भी अभाव रहता है. इंद्रियोंके अभाव में भी उनको अतींद्रिय अनन्त सुख प्रगट हुआ है.
जं णत्थि बंधहेदुं देहग्गहणं ण तस्स तेण पुणो ॥ कम्मकलुसो हु जीवो कम्मकदं देहमादियदि ॥ २१३७ ॥ न फर्माभावतो भूयो विद्यते विग्रहग्रहः ।।
शरीरं श्रयते जीवः कर्मणा कलुषकृितः ।। २२.९॥ विजयोदया-ज शरिथ बंघडे यन्नास्ति बंधकारणं तेन न मुक्तस्य देहग्रहणं, कर्मकलुषीकृती हि जीथः कर्मः कृतदेहमावते ।।