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________________ STATB81 मूलाराधना आश्वासः STATINISTOTAToraneeTOSCARRASTAKSATTA जीव उपकारकर्ताका बंधु होता है. यदि जीव अपकार करे तो वही बंधु शत्रु हो जाने में देर नहीं लगती. शत्रुओंके उपर भी यदि हम अनुग्रह-उपकार करेंगे तो वे भी हमारे बंधु होते हैं. स्नेह सर्व असंयमका मूल कारण है. इस स्नेहके भी-बंधु कारण होते हैं. अर्थात बंधु असंयमके कारण है. ये बांधवगण सन्मार्गमें प्रवृत्त हुये जीवके विरोधी बन जाते हैं. अतः ये बांधव महाशत्रु हैं ऐसा समझना, पुण्यके उदयसेही जीवको सर्व प्रकारके सुख मिलते हैं। सुखदायक वस्तुओंका उसको समागम होता है. परंतु पुण्यरहित जीवको सुखदायक पदार्थोंका संयोग होने पर भी मुख नहीं होता है, असाता वेदनीय कर्मका उदय हो तो पुत्र माताका त्याग करता है. अथवा माता भी पुत्रको त्यागती है. यदि असाना वेदनीय कर्मका उदय न होगा तो कोई भी अपने उपर अपकार नहीं कंग्गा. यदि अंतरंगम असावा यंदनीय कामका उदय न हो तो बाय शत्रु जीभको कुछ भी पीडा नहीं दे गा , इस नरह विचार करना यह समता है. यह नमता घोगपरिकर्म है अर्थात शुभध्यान-धर्मध्यान और शुक्रध्यान उत्पन्न होनम कारण है.. योगपरिवर्म इस समस्त मान्दमें जी गोग शब्द उगक अनफ. अर्थ है. जस योगनिमित्र ग्रहण ' यहां मनोरगंणा, बचनवगणा व कायवगणा इनके आश्रयने जो आस्मप्रदेवोमें चंचलता उत्पन्न होती है वह योग शब्दमे वाच्य होती है. योग शब्द का संबंध ऐसा भी अर्थ होता है, जैसे -इसका इसके साथ योग है. अर्थात मंबंध है. योग शब्द कहीं कहीं ध्यानवाचक भी है, जो योगस्थितः' अर्थात् मुनि ध्यानमें स्थिर है. ग्रस्तुत प्रकरणाम योगका अर्थ ध्यान एमा मानना चाहिये, राग-ए, और मिथ्यात्वसे रहित, पदार्थके यथार्थ स्वरूपको स्पर्श करने वाला अर्थात् जाननेवाला तथा विषयांतरसे हटकर एक विषयमें ही स्थिर होनेवाला एमें ज्ञानको ध्यान कहते है. जिसने समताका अभ्यास नहीं किया है. और जिसको वस्तुका सत्यस्वरूप ज्ञात नहीं हुवा है ऐसा पुरुष ध्यान करने में असमर्थ है ऐसा समझना चाहिये. जिसने अंतःकरण घश किया है, वह मुनि मनुष्यपर्यायका नाश होनेके समयमें अर्थात मरणकालमें धर्मशुक्लध्यानमें में समर्थ होउंगा ऐसा समझकर हमेशा समताका अभ्यास करता है, यद्यपि गाथामें ' ज्झाणसमत्थो' इस समस्त शब्दमें ध्यान शब्द सामान्य ध्यानका वाचक है तथापि यहाँ प्रशस्त ध्यानका वाचक समझना चाहिये, अर्थात् धर्म व शुक्ल ये दोन ध्यान प्रशस्त है तथा आर्त और रौद्र ये दो ध्यान अशुभ है.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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