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________________ मूलाराधना १३६६ कषायचौरानतिदुःखकारिणः पविवचारित्रधनापहारिणः ।। शृणाति यावरिमार्गणैः करस्थितास्तस्य मनीषिताः श्रियः । १४९६।। इति लोभनिर्जयः || विजयोदया - इंद्रिय कसायतिगदं । भूला - स्वम् || लोभ निर्जयः || अर्थ -- इहपरलोक में यह लोभ अनेक दोषोंको उत्पन्न करता है ऐसा समझकर लोभकपायपर विजय प्राप्त करना चाहिये, इंद्रिय और कपायों का वर्णन समाप्त हुआ पवमंद्रिय कषायपरिणामनिरोधोराय भूतान्परिणामानुपदिश्य निद्राजयक्रमं निरूपयति सूरिः-जिद्द जिणाहि णिच् द्दिा हु गरं अचेयणं कुणइ ॥ बज्जिहु पासुतो खवओ सव्वेसु दोसेसु || १४३९ ॥ निद्रां जय नरं निद्रा विदधाति विवेशनम् ॥ सुप्तः प्रवर्तते योगी दोषेषु सकलेष्वपि । १४९७ ॥ विजयोदया-जिरं जिणादि निद्रां जय । व्यजिता सा किमपकारं करोति इत्याशंक्य आह-विड़ा हु परं अ कुद निद्रा नरं अचेतनं करोति । चैतन्यरहितावस्थाभाषात्किमुच्यते अचेतनं करोतीति । श्रोते विवेकज्ञानरहितत्वमेवात्राचेतनशनोच्यते । यत एव योग्यायोग्यविषेशानरहित अत एव षट्टिज्ज हु वर्तते एव । पासुतो प्रकर्षण सुप्तः । स्वगो क्षपकः । सब्बे दोसेसु हिंसामैथुन परिप्रहादिकेषु ॥ एव सिंद्रियकपायजयान्संवरतूनुपविश्य तत्प्रकरणानुरोधात्प्रकं निद्राजयोपायं भोवार्य गाथादकेनोपदिशति मूलाग - जिणाहि जब त्वं । अचेवगं युक्तायुक्तविविमुक्तं सु हिंसादिषु ॥ इंद्रिय पाय परिणामोंका निरोध करनेमें उपायभूत परिणामों का यहनिक आचार्यने विवेचन किया अब निद्राजयका क्रम कहते हैं - अर्थ- हे क्षपक तू निद्राको जीत ले, निद्राको न जीतने से क्या हानि होती है इस शंकाका उत्तर ऐसा है-निद्रा मनुष्यको अचेतन करती है. आत्मामें चैतन्यरहित अवस्था का अभाव ही हैं अतः निद्रा आवेतन करती है. ऐसा क्यों १७९ आश्वासः १३६६
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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