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________________ मूलाराधना आश्वासा १५२७ अथवा 'उत्समसंहननस्य' यह शब्द विशिष्ट वीर्यवान् आत्माके लिए उपलक्षण है. अर्थात उत्तमसंहनन वीर्यातिशयवान् आत्माका एकवस्तु में स्थिर ऐसा जो ध्यान उसको ध्यान कहना चाहिये ऐसा सूत्रार्थ है. शुक्ल ध्यान चार प्रकारका है (इसका ग्रंथकार आगे वर्णन करंगे) यह ध्यान चतुर्गतिके दुःखाका नाश करता है. चतुर्गति भ्रमण करनेसे जिसको भय उत्पन्न हुआ है अर्थात् चतुर्गतिके दुःखोंसे जो भययुक्त है. ऐसा क्षपक धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान ऐम दो ध्यान का चिंतन करता है, ण परीसहेहि संताविउं बि सो झाइ अट्टरुहाणि ॥ सुट्टवहाणे सुई पि अट्टरुदा वि णासंति॥ १७०० ।। आर्तरौद्रद्वयं त्याज्यं सर्वदा दुःस्वदायकम् ।। तेन निश्चलाते शानं दुर्गा समयः॥ १७६७ ॥ विजयोदया-ण परिस्संही सनपकः परिस्सहदि परीपहेः । संताविदो विवाधितोऽपि भट्टरुहाणि आत्त रौद्रं च न झाइ नाध्याति । सुश्वहाणे मुष्ठ उपधाने । शुद्धमपि अाणि णासंति आर्तरौद्ध्याने नाशयतः ॥ तीप्रदुःखातोऽप्यसौ सयानं प्रतिपद्यते इति स्वरूपानुवादाभिव्यक्त तुर्थानप्रतिषेधमनुशास्ति मूलारा....सो सयानोवतः साधुः । सुविधाणं विसुद्धपि सुष्ठूपधानरसंक्लेशपरिणामर्षिशुद्ध विशिष्ट शुद्धि कर्मनिर्भरणशक्तिसंहिन प्रापितमपि सद्धपानमातरौद्रे नाशयतः। किं पुनरितरदिति त्वया संसारभीक्षणा घोरपरीषदोपहतेनापि ते दुाने मनागपि नालंबनीये इति प्रतिषेधपरोक्तिः ॥ अर्थ-यह क्षपक परीवहोंके द्वारा पीडित होनेपर भी आर्त ध्यान और रौद्र यानका चिंतन नहीं करता है. शुद्ध परिणामों के द्वारा उस क्षपकका ध्यान कर्मनिर्जरा करने में समर्थ है तो भी ये आतरीद्रध्यान उस उत्तम श्यानका नाश करते हैं, इसलिये हे क्षषक! संसारदुःख से भययुक्त होकर परीपहोंसे पीडित होनेपर भी इन अशुभ घ्यानोंका स्वीकार करना तेरे लिये बिलकुल अयोग्य है. न
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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