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________________ आश्वास फुलाराधना १८६९|| दूतिका हृतो यं महर्द्धिकसुरश्रियः ।। अब नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ॥ २२५५ ।। २० महाऋद्धिशाली देवोंकी लक्ष्मीको बुलाने के लिये जो दुनीके समान है ऐसी यह रत्नत्रयसे निर्मल बनी हुई आराधना हमारा रक्षण करे.. मुक्तिदाने क्षमा यास्ति विरतिभवसंततः॥ अद्य नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्रिता ॥ २२६०॥ २१ जो मुक्तिप्रदान करनेमें समर्थ है, जो भवपरंपराका नाश करनी है ऐसी यह रत्नत्रयनिर्मल आराधना हमारा संरक्षण करे. एषैव परमो धर्म एघ परमं तपः ॥ पषैवाहदचो वाच्यमेव ध्यानसंगतिः ।। २२६१ ।। एव परमो लाभ पपैव परमं मतम् ।। एषैव परमं तत्वमेव परमा गतिः ।। २२६२ ॥ पसगा नदि निगोपप. अतः शरणमेपेका भवतान्मे भवे भवे ।। २२६३ ।। २०-२३ यह आराधनाही उत्कृष्ट धर्म है, उत्कृष्ट तप है, जिनवान अपनी दिव्यध्वनीसे इसकाही वर्णन किया है. इसकोही ध्यान की प्राप्ति होने में कारण मानना चाहिये. जगत में आराधनाकी प्राप्ति होना ही परम लाम है. यही उत्तम मत है. यही उत्तम तत्व है और यही हमारी परम संरक्षिका है. इापकी जिसको प्राप्ति हुई है उसको जगत में कोनसा मुख परम दुर्लभ है ? इसलिये प्रत्येक मदमें मैं इसका ही आश्रय ग्रहण करूंगा. या सर्वज्ञहिमाचलादपमृता शीलप्रवाहात्मिका ।। या सर्वर्द्धिसमर्थितगणधरैराराधिता निर्मला ॥ या दुर्वारभवा सुखाहतणां निर्वापणी स्वधुनी ।। सावः पापविशोधनाय शुभदा भूयात्सदाराधना ॥ २२६४ ।।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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