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आश्वास
मूलाराधना
७४.
अर्थ-तृतीय यति आचार्यके द्वारा अनुग्राह्य होता है ऐसा तीर्थकराने आगममें नहीं कहा है. अर्थात् आचार्य ऊपरकी गाथाके अनुसार दो मुनिओके ऊपर अनुग्रह करसकते है. दो या तीन मुनि यदि समाधिमरणकेलिये संस्तरका आश्रय करेंगे तो उनके अन्तःकरणको धर्ममें स्थिर रखनका कार्य, विनय, वैयावृत्यादिक कार्य, यथायोग्य नहीं हो सकेंगे. जिससे उनके मनको संक्लेश होगा. अतः एकही क्षषक संस्तरारूद हो सकता है.
तम्हा पडिचरयाणं सम्मदमेयं पडिच्छदे खवयं ॥
भणदि य तं आयरिओ खवयं गच्छरस मज्झम्मि ॥ ५२१ ॥ एकमेव विधिना यतिं ततः स्वीकरोति स्वसहायसम्मतम् ।। गृयते हि कबलः स एव यः पंडितेन यदने प्रशस्यते ॥ ५४॥
इति एकसंग्रहः ।। मध्ये गणस्य सस्य क्षपकं भाषते हितम् ।।
इत्थं कारयितुं शुद्धां विधिनालोचनां गणी ।। ५४१ ।। विजयोदया-तम्हा तस्मान् । एक । पच्छिदे अनुजानाति । खवगं क्षपके रकं । पडिचरयाण सम्मद प्रतिचारकाणांए । भारिप भणति च । तं शापकं । कः ? आयरिश्री आचार्यः । क? गच्छस्स मज्झम्मि गणम्य मध्ये। क्षपफस्य शिक्षा किमर्थं गणोऽपि मागशो यथा स्यात् । पच्छिणेगस्स ।।
उपसंहारमाह ---
मूलारा--भणदि शिक्षामितिशेषः । मम्मि गणोऽपि मार्गको यथा स्यादित्येवमर्थ गणमध्ये शिक्षयति ॥ एकप्रतीच्छा ।। सूत्रतः ।। २२ ।। अंकतः ॥ ३ ॥
अर्थ- इसलिये आचार्य परिचारक मुनिओंके संमत्यनुसार एक क्षषक मुनिका स्वीकार करते हैं, और मणके मध्यमें उसको आगे की गाथाओमें कहे मुजब उपदेश करते हैं. गणके बीच में आचार्य क्षपकको उपदेश देनेका कारण यह है कि, गणको भी समाधिका अर्थात् रत्नत्रयका स्वरूप मालूम हो. अर्थात समाधिभरणका अगीकार करते समय कैसी प्रवृत्ति करनी चाहिये इसका स्वरूप मालूम होने के लिये मणके बीच क्षपकको उपदेश देते हैं.