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आधार
मनागपना |
नाम्यालोचयतो गनोग्यापार दर्शयनि--
मूलारा--होहिदि अशे अस्यावजितचित्तस्य गुरोर भविष्यति स्थूल सूक्ष्म पातिचारजासं मया । । गझसो वृहत्प्रायश्रितं मे दास्यति कि नाई ? काहिदि अणुग्गमिमोति करिष्यत्ययमुपकारमिति | आलोचिंतस्स हु पढमो आकंपनामकः । दोषत्वं चास्य गुरोरविनयप्रवर्तनात् । यत्किचिल्लम्मा गुरवस्तुष्पा लघुप्रायश्चित्तदायिनो भविष्यति इति स्व बुया अमरोषाध्यारोपणानि मानसो विनयः ।
आलोचना करते समय उसकी मनःप्रवृत्ति कैसी रहती है इसका वर्णन -
अर्थ - आहारादिकों के दान तुष्ट किये गुरु मेरेको महान् प्रायश्चित्त न देंगे. छोटासा प्रायश्चित्त देंगेअतः स्थुल सक्षम सब दोष में गुरुको कहूंगा. इस विचारसे कोई यति अपने दोष कहते हैं. और इस प्रकार सर्व दोपोंकी आलोचना होगी ऐसा मनमें समझते हैं. यह आलोचनाका प्रथम दोष है. इस दोपमें अविनय घुसा हुआ है. उसका विवेचन इस प्रकार--
जो कुछ भी मिलनसे गुरु संतुष्ट होकर छोटासा प्रायश्चित देंगे ऐसा अपने मनमें विचार कर उनपर असदोषका आरोपण करना यह मानसिक अविनय है. अर्थात गुरु लोभी होनेसे उपकरणादि पदार्थ मिलनेसे खुष होजाते हैं ऐसे दोषका आरोपण करना. अशुभपरिणामसहित यह आलोचना की जाती है इस वास्ते यह आलोचना सदोष है ऐसा कोई आचार्य इस आलोचनाके विषयमें कहते हैं
केण विमं पुरिमो पिएज्ज जह कोइ जीविदच्छीओ ॥ मणतो हिंदमहि तधिमा सल्लुरणसोधी ।। ५६५ ।। कथित् कीत्या विषं भुक्त नरो मत्वाहित हितं ॥
जीवितार्थी यथा मूर्खस्तथेयं शुद्धिरिष्यते ।। ५९० ॥ विजयोदया-केदुण विसं पुरिमो इत्यादिना । जह कोद पारसो जीविदच्छी विसं फेदूण पिवेज इतिसंबंधः । यथा कात्पुरुषो जीवितार्थी विष कीत्वा पिति । अद्दिदं अदितं कृत्वा । विषपानं हि मण्णतो हितमिति मन्य मानः । तधिमा तथा इयं सल्लुद्धरणशोधी मायाशल्योद्धरणशुद्धिः । सामान्यवचनोऽपि शल्यशदोऽना मायाशल्ये वृत्तः ।