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SHETATATA
भुलाराधना
आश्वासः
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विजयोश्या-भत्ती भक्तिः । यदननिरीक्षणादिप्रसादेन अभिव्यज्यमानोऽन्तर्गतोऽनुरामःतयोऽधिगस्मि । तपो ऽधिकं च तवम्मि य सम्यकतपसि, तद्वति च, भक्तिरिति यावत् । तच सम्यग्भानदर्शनसंयमानुमतं । अद्दीलणा य अपरिभवश्य । मसाणं शेषाणां तपसा न्यूनानामात्मनः शानधदानचरणवतां परिभवे झानादीन्येय परिभूतानि भवति । ततो यह मानामावो सानातिचारः, यात्सल्याभावो दर्शनातिना मानिवारयमनल चारिति , भाई इति भावः । गसरो पर ध्यावर्णितारणामसमूह उत्तरगुणोद्योगादिकः । तस्मि तपसि तपोविषयः । विणी विनयः धुनचारिस श्रुतनिरूपिनकगंगाचरतः । साधुस्स सायोः ।
मूलारा-तयोहियाम्म आत्मनः सकाशात्तपसाधिके राधौ । अहीलणा अपरिभवः । सेसाण अत्मनः सकाशान्तपसा न्यूनाना । सो योक्तः परिणामसमृधः।
अर्थ-तपसे अधिक अर्थात् अपनेसे श्रेष्ठ ऐसे मुनिका दर्शन होनेपर मुखमें प्रसन्नता आनंद वगैरह उत्पन्न होकर मनका अनुराग गुण प्रकट होना यह भक्ति है. यह भक्ति तपोधिक मुनि और तपमें करनी चाहिये, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और संयमपूर्वक जो तय किया जाता है वही सम्यक् तप है. इससे उलटा तप संवर और निर्जराका साधन न होकर संसारभ्रमणका साधन होता है. जो मुनि अपनेस तपसे हीन है, न्यून है परंतु जो ज्ञान, श्रद्धान और चारित्रसंपन्न हैं उनकी अबहेलना कदापि नहीं करनी चाहिये. उनकी अवहेलना करनेसे ज्ञानादिक सद्गुणोंका तिरस्कार होता है. ज्ञानादिकका बहुमान न होनेसे ज्ञानमें अनिचार दोष उत्पन्न होता है. अवहेलनासे वात्सल्यगुणका नाश होकर दर्शनमें सदोषता पैदा होती है, ज्ञान और सम्यग्दर्शन अशुद्ध होनेपर चारित्र भी अशुद्ध हो जाता है. यह तो महा अनर्थ हुवा ऐसा समझना चाहिये.. पूर्व गाथामें और इस माथामें कहे, हुए गुणोंका पालन करनेसे शासके अनुसार आचरण करनेवाले साधुको तपोविनयकी प्राप्ति होती है.
उपचारनिरूपणार्थोत्तरगाथा
काइयवाइयमाणसिआत्ति तिविधो हु पंचमो विणओ ॥ सो पुण सब्बो दुविहो पञ्चरखो चेत्र पारोक्खो ॥ ११८ ।। कायिको बाचिकश्चैतः पंचमो विनयमिधा ।। साप्यसौ पुनढेधा प्रत्यक्षतरभेदतः ॥ ११९ ।।