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भूलारापना
आश्वास
दिवस, रात्रि, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक रत्नत्रय संबंधी जो अतिचार होगये हो उनका मनसे स्मरण करना चाहिय. अनंनर मन प्रमादवश होकर यह दुष्ट कार्य किया है ऐसा चिन्तन कर धर्म अथवा शुक्लध्यान प्रयत्न करना चाहिये, कायोत्सर्ग धारण करनेवाले मुनियों ने उस्थित कायोत्सर्ग दोषोंका त्याग करना चाहिये. उन दोपोंका स्वरूप इस प्रकार है
१ जैसे घोडा आपना एक पांच थोडासा अकड लंगडा करके खडा हो जाता है वैसे खडा होना २ बेली जैसी इधर उधर चंचल होकर हिलती है वैसे खडा कायोत्सर्ग करते समय हिलना, ३ खंबेके समान शरीर ताठ करके खडे होना ४ खके आश्रयसे, भित्तीके आधारसे अथवा मस्तकको ऊपरके पदार्थका आश्रय देकर खड़े होना. ५ अधरोष्ट लंबा करके और स्तनके तरफ दृष्टि देकर कौवेके समान दृष्टीको इतस्ततः फेकना. ६ लगामसे पीडित देकर बोस यो पुसको हिसला है वैसे मुखको हिलाता हुआ खडे होना ८ बैलके मानपर जूं रखनेसे यह अपनी मान नीचे करता है वैसे मान नीचे करता हुवा खड़े होना. ८ कैथका फल पकडनेवाला मनुष्य हाथका तलभाग जैसे पसरता है बैसे करनल पसारकर खडे होना, ९ हाथके पांचो अंगुलिया संकुचित करके खडे हो जाना, १० गूगामनुष्य जैसे इंकार करता है वैसे खडे होकर इंकार करना. अथवा गूगा आदमी जैसे नाकके तरफ हाथ उठाकर वस्तुको दिखाना है वैस खडे होकर वस्तुको हायसे दिखाना, चुटकी बजाना, भोंहे टेढी करना, भोहे नचाना. अर्थात् बडे होकर उपयुक्त दोषसहित कायोत्सग करना. १४ भीलकी स्त्री जैसी अपने गुह्यप्रदेशको हावर्ग हकती हैं या कायोत्सर्गक ममत्रमें करना. १५ जिसके पात्र बेडीसे जकडे हुये हैं ऐसे मनुष्यके. ममान ग्वटे
रहना. १६ मद्यपान किये हुए मनुष्य के समान शरीरको इधर उधर झुकाता हुआ खड़े होना ऐम कायोत्गग. । दोप है. इन छह आवश्यक कमामें हानि नहीं करनी चाहिये नथा इनमें घटबढ भी नहीं करनी चाहिये.
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भत्ती तबोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं ॥ एसो तवम्मि विणओ बहुत्तचारिस साधुस्स ॥ ११७ ॥ तपस्तपोधिके भक्तिर्यच्छेषाणामहेडनं । स तपोविनयोऽवाचि ग्रंथोक्त चरतो यतेः॥११८॥
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