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________________ लारावना आश्वास ३३७ हैं उसको उत्पत्ति इस प्रकार होती है. जिन्होंने मोहनीय कर्मका भार फेक दिया है, शुक्लध्यानरूपी सूर्यके सहाव्यसे जिन्होंने ज्ञानाबरण और दर्शनावरणरूप अंधकार नष्ट किया है, अन्तराय कर्मरूप विपवृक्षको जिन्होंने निर्दलित किया है एमें भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न होता है. यह शान महत, शंद्रियों की प्रथसिंस रहित, और संशय विपर्ययज्ञानस रहित होता है. इस कवलज्ञानसे मोक्षफलबी माप्ति होती है. केवलजानकल्याण देखनंसे जिनप्रणीत मोक्षमार्गमें शकादि दापरहित श्रद्धा उत्पन्न होती है. जिनको मोक्षफलेच्छा है ये रत्नत्रययुक्त अथवा जन्मकल्याणादिकांस युक्त तीर्थकरादिकॉपर उनके सामर्थ्य देखनेसे श्रद्धान करते हैं. Sara CA एवमनियतविहारे दर्शनशुद्धिस्वार्थमुपवर्य परोपकारं स्थिरीकरणं प्रकटयति संविग्गं संविग्गाणं जणयदि सुबिहिदो सुविहिदाणं ॥ जुत्तो आउत्ताणं विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं ॥ १४ ॥ संचिनो वृत्तसंपन्नः शुद्धलेश्यस्तपोधनः॥ देशांतरातिथिः साधुः संवेजयति तद्वतः (तद्रतान् ) ।। १५७॥ विजयोदया-संनिग संसारभीरता । जयदि जनयति । कः ? मुविहिदो सुन्धग्निानां । संविगाण सविझानां । जुनो सनशनादिके तपसि युक्तः । आजुत्ताण योगचाराणां । विसुद्धलेस्सो विशुसलेश्यः । मुलम्साणे सुलझ्यानां च । सम्यक चारि मतपसोः शुद्धलेण्यायो च प्रवर्तमानं वृष्ट्वा सर्वेऽपि सुचारित्राः सुतपसः शुद्धलेश्यायतपः अतिशयवती संसारभीरता प्रपर्यते । न वयमतीच संसार मीरवः, यथायं भगवान् अत एव नचारि तपश्च सातिचार इति मन्यमानाः। एवमनियत विहारे दर्शमशुद्धिं स्वार्थमुपदश्चेदानी स्थितिकरण परार्थमुपदर्शयति मूलारा--संघे संसारमीरुता । जण यदि बर्द्धयति । जनिरिह स्वरूपातिशयोत्पादनार्थो न स्वरूपाविर्भावनार्थः । संवगम्य धागपि सद्भायात् । सुविहिदो सुचरितः । अनशनादिके तपसि समाहितः । आजुत्ताणं योगधरिणाम् । अनियतविहारस दर्शनविशुद्धि होती है. अब साधर्मिक स्थिरीकरण भी इससे होता है यह दिखाते हैंअर्थ-अनियतविहारी मुनि उत्तमचारित्र धारक होनेसे उनको देखकर सर्व मुनि उत्तम चारित्रधारक ३३०
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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