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________________ मूलाराधना आश्वासः ३३८ होते हैं. इनकी संसारभीरुता देखकर वे भी संसारभीरुताको प्राप्त होते हैं. इनकी अनशनादि तपश्चरणोम निमग्नता देखकर अन्य मुनि भी फंस बनते है. विशुद्ध लेश्याके धारक ऐसे इन मुनिआंको देखकर ये भी अपने परिणाम विशुद्ध करत हैं. यह कायदा अनियत विहारस होता है, इस लिये मुनिको अनियतविहारी बनना अवश्य योग्य है. अभिप्राय यह है कि, अनियबिहारी मुनिवयकी सभ्याचारित्र और तपमे प्रवृत्ति देखकर सब उत्तम चारित्र युक्त, महातपस्वी और विशुद्धलेश्या धारक यति भी संसारभयकी उत्कृष्ट सीमाको प्राप्त होते हैं. जैसा ये महामुनि अतिशय संसारभीक हैं वैसे संसारभीरु हम नहीं हैं. इसलिये हमारा तप और चारित्र अतिचारसहित है ऐसा मनमें विचार कर अन्य साधु भी संसारभीरु, महा तपस्वी, सच्चारित्रधारक और विशुद्धलेश्यावान् बनते हैं. अतः अनियत विहारसे साधुओंपर उपर्युक्त उपकार होता है यह सिद्ध होता है. उत्तरगाथया एतदाचंष्ट्र न केवलं अतिशयितचारित्रतपोगुण पच परं संविग्नं करोति किंतु एवंभूतोऽपि इत्याच पियधम्मवज्जभीरू सुत्तत्थविसारदो असढभावो॥ संबेग्गाविदि य परं साधू णियदं बिहरमाणो ॥ १४५ ॥ प्रियधर्माशयः साधुरागमाविचक्षणः॥ भ्रमन्नवद्यवित्रस्तः संविग्नं कुरुते परम् ॥ १४८ ॥ विजयोदया-पियधम्मच जभीरू मिय उत्तमक्षमादिधर्मो यस्य, यश्वायत्रस्य पापस्य भीरुः । सुत्तस्थघिसारदो सुथार्थयोनिपुणः, । धसभावो शायरहितः । संबग्गाबिदिय परं संचिग्नं करोति । साथू साधुः। णिवदं सर्वकालं यिहरमाणो देशांतगतिथिः। न केवलं सम्यक् चारित्रतपोविशुद्धलेश्यावृत्तिस्तयाभूतानन्यान्साधूनतिसं विमान्झरोत्यपि त्वयंभूतो पि -- मूलारा-बजनीक पापभीरः । संविग्गायेदि सविमं करोति । जियदं सर्वदा। जिसका तप व चारित्र गुण उत्कृष्ट है वही मुनि अन्य मुनिआमें संसारभीरुत्व उत्पन्न कर सकता है ऐसा नहीं है किंतु अन्य गुणवालाभी संसारभीरता उत्पन्न कर सकता है इसी बातका वर्णन आगेकी गाथा करती है.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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