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और रोग ये तप करने में व्यत्यय लाते हैं. ऐसा मनमें विचार कर जब ये देहमें नहीं होंगे तब तपमें उद्योग करना
लाराधना
चाहिये.
आश्वासा
५.
सत्तीए भत्तीए बिज्जावच्चुज्जदा सदा होह ।। आणाए णिज्जत्ति य सबाल उठाउले गच्छे ॥ ३.४ ॥ शक्तितो भक्तितः संघ वदलास्ते चतुधि ।
वैयावृत्यकराः शश्वजिनाज्ञामिर्जरार्थिनः॥ ३०२ ।। विजयोदया-सत्तीर भसीप शक्त्या भक्त्या स्त्र | पिज्जायन्युजवा वैयावृत्ये उद्यताः सदा होइ निस्य भवत । आणाप णिज्जरेतिय संवक्षानामाशा वयानुत्त्यं कर्तव्यमिति तदानया हेतुभूतया, यावृत्यं हि तपः तपसा निर्जरा भवतीति च । सबालउडाउले सह पालेर्वर्तमाना ये पृवास्तैराकीणे गणे॥
मूलारा---प्राणाए यावृत्त्ये कतेच्यमिति जिनानामाया हेतुभूतया । णिजरति वैयावृत्त्य निर्जराहेतभनत्वानिर्जरा इति कृत्वा ॥
अर्थ-बालमुनि और वृद्ध मुनिओसे व्याप्त एसे मुनि समुदायका यावृत्य करने में है मुनिवृदः तुम अपनी शक्तिसे और भत्तीस सदा उद्यत बनो. यावृत्य करना यह मुनिओंका कर्तव्य है एसी जिनदेवकी आज्ञा है एसा समझकर और यह वैयावृत्य तप है नथा निर्जराका कारण है ऐसा समझकर उसकं करने में तुम तत्पर रहो.
वैय्यामृत्यं कर्तुमभ्युद्युक्तं प्रति इदमादर्शयति
सेम्जागासाणसेग्जा उवधी पडिलेहणावग्गहिदे || आहारोसहवायणविचिन्वत्तणादीसु ।। ३.५ ।। उपधीनां निपद्यायाः शय्यायाः प्रतिग्दनम् ।। उपकारोऽनभैषज्यमलत्यागादिगोचरः ॥ ३०३ ।।