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________________ आचासः विजयोदया-शानं यदी तस्मै उपकारितया मिदमणि समोपकारि पनि प्रतिपयमलिनै परोपकारि तु भपत्ति खरणोद्धं चंदनादिकमिति सार्थः ॥ मूलारा- हिदे उपकारे | से तस्य ज्ञानवतः ।। उपकारितया प्रसिद्धमपि नोपकाराय भवतीत्यर्थः । अर्थ-इंद्रिय और कपार्योसे ज्ञान मलिन होता है तब वह अपने स्वामीका हित करने में असमर्थ होता है परंतु उस ज्ञानस दूसरों का हित होता है. गधा चंदनका बोझा धारण करता है परंतु उससे उसका भी हित होता नहीं. जो उस चंदन का उपभोग लेते हैं उनकाही उससे हित होता है. उसी तरह इंद्रियकवायसे जिसका ज्ञान मलिन हुआ है ऐसा आत्मा गधकेसमान स्वज्ञानसे अपना हित नहीं कर सकता है. ज्ञान प्रकाशकत्वमपि अहाति इंदियकसायणिग्गहणिमीलिदस्स हु पयासदि ण णाणं । रतिं चक्खुणिमीलस्स जधा दीवो सुपज्जलिदो ॥ १३४५ ॥ कयायाक्षगृहीतस्य न विज्ञानं प्रकाशते । निमीलितेक्षणस्येव दीपः प्रज्वलितो निशि ॥ १३९३ ।। विजयोदया-इंद्रियकरायपरिणामवाविति निगदति । इंद्रिय करसायणिग्गहणिमीलिदस्स इंद्रियकवायनिग्रह निमीलिनस्यान्मनो शानं न प्रकाशकं । रत्तिच गवाविव | चकबुणिमिलिदस्त निमोलिनवभुपः पुंसः । जद्द दीयो सुपज्जलिदो यथा सुप्रज्वलितः प्रदीपः ॥ __ मृलारा- णिमोलिदस्स अनुपयुक्तस्य । इंद्रियकषायाभिभूतस्येत्यधैः । पयासदि ण वस्तुप्रकाशक न भवति । रति रात्रौ । चणिमीलिदस्स पिहितनेत्रस्य । ज्ञानका पदार्थको प्रकाशित करना अर्थात् जानना यह धर्म है परंतु वह भी कपायवश होनेपर नष्ट होता है ऐसा कहते हैं. अर्थ-इंद्रिय और कषायवश होकर आत्मा हीनावस्थाको पोहोंचता है तब उसका ज्ञान पदार्थ स्वरूपको मकाशित करनेमें असमर्थ होता है. जैसे रातमें कोई आदमी आपने भीचकर सोया हुआ है ऐसी परिस्थितिमें उसके
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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