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मूलाराधना
आश्वासः
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उत्तर यह है - मनोज और अमनोज्ञ पदार्थ सर्वत्र और हमेशा रहते हैं. और अन्तरंग कारण जो कर्म उसका उदय होनसे दुनिवार राग, द्वेष, और मोहकी उत्पत्ति होती है, जिससे वह चारित्र का त्याग कर बैठता है.
जैसे बांसक समुदायमेंसे छोटा बांस कुल्हाडीसे काट सकते हैं परन्तु वह उखाडकर निकालना अतिशय कठिन है. वैसे संयमीका मन जन्न विषयों में आसक्त होता है तो उससे उसको निकालना दुःसाध्य होता है. अर्थात् मनमें उत्पन्न हुए राग द्वेप नष्ट करना कठिण कार्य है. इस विवेचनका यह अभिप्राय हैरागद्वेषोंका पराजय करने की क्षपकने प्रतिज्ञा की थी तथापि शरीरसोलखना करनेपर जब वह भूक प्यास वभरह परीपहोंसे पीडित होता है और उसको सहन करने का सामर्थ्य कम होता है तब अतज्ञानके पति मनकी एकाग्रता नष्ट होता है. श्रुतवान, एकाग्रता न होने से राग द्वेष उत्पन्न होते हैं और वह क्षपक चारित्राराधनासेच्युत होता है, - ऐसे समयम यदि बहुश्रुत आचार्यका मगम पास होगा तो वे रागदेवों की उत्पनि न होगी ऐसा उपदेश देते हैं. शरीर और भोगाम वैराग्य उत्पन्न होगा एसी कथायें उसको कहते हैं. और चारित्राराधनामें उसको स्थिर
भोग और शरीर में बराम्य उत्पन्न करनेवाली कथा अर्थात उपदेश इस प्रकार है
नरकमें नारकिओंको दुःखही दुःख है. सुखका लेश भी वहां नहीं है, तिर्यच प्राणी, देव और मनुष्य इनको किसी प्रदेश में किसी कालमें और किसी प्रकारसे थोडासा सुख मिलता है.
नाना कुयोनिमें भ्रमण करनेवाले इस जीवने जो अपरिमित दुःख प्राप्त किया है वह इतना अधिक है कि आजतक अनेक शरीर धारण कर इसने जितना सुख प्राप्त किया है उससे वह अनंत गुणित है. अर्थात् जितना सुख इस जीवने आजतक भोगा है वह भोग हुए दःखका अनंतचा भाग भी होना कठिन है:
इस जन्मसागरमें यह एक जीव सुखंक एक भागको कितने दिन भोगेगा. जैस बनम अतिशय भयाकुल हरिण दुःखोंसे व्याप्त होनेसे मुखका अति अल्पकाल में ही थोडासा अनुभव लेता है.
जो सुख अनंतभवमें भ्रमण कर यह प्राणी प्राप्त करता है उसका एक भवमें यह प्राणी कितना हिस्सा प्राप्त कर लेगा यह विचारणीय है. जैसे मेघोंका पानी लवणसमुद्रके पानीसे मिलकर खारा बन जाता है, वैसे इस जीवका अत्यल्प सुख दुःखराशीमें मिलकर दु:खरूप ही होजाता है.
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