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मृलाराधना
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दर्शनमोहनीय कमके उदयसे लोक इससे मुंह मोडते हैं. दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, भय अथवा क्षयोपशम जब होता है रात्र इस पर महितकारक धर्मपर प्राणी श्रद्धा करने लगते हैं. श्रद्धा न करनेपर भी संयम-चारित्रकी प्राप्ति होना अधिकही कठिन है क्योंकि प्रत्याख्यानावरणी कर्म जीवको चारित्रपालन करने में प्रतिबंध करता है. इस विषयमें पूर्वाचार्य ऐसा कहते हैं -
मनुष्यको सत्यधर्मका स्वरूप अंडे कष्टसे मालुम होता है, बान होनेपर धर्ममें प्रवृत्ति करना उससे भी अधिक कटिन है. जीवादिक तच्चों का स्वरूप जिसने जाना है ऐसे मनुष्यको धर्मका स्वरूप जानकर उसमें स्थिर होना चाहिये और इस धर्मका आचरण करते समय प्रमादको छोड देना चाहिये. एक क्षयापर्यत भी उसका आश्रय नहीं करना चाहिये. . पापकार्य अरनेकी अपेक्षा धर्माचरण करना अधिक सुलभ है. परंतु एक क्षणपर्यंत भी धर्माचरण करना मनुष्यको कमिस इ.खता है.
इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है. पापकर्मके तीव्र उदयसे मनुष्य मूढ होते हैं. एक तुच्छ कवडीको भी महत्वकी चीज समझकर यह मूह मानव उसकी प्राप्तिके लिय महान्परिश्रम करता हुआ देखा जाता है.
परंतु तब मनुष्य देव और मनुष्यका ऐश्वर्य देनमें समर्थ मोक्षका मूल ऐसे सद्धर्म में अपना हृदय स्थिर करता है.
मृह मनुष्य अहित कार्यमें ही प्रयत्न करता है. और परमहितकर धर्म हमेशा आलसी रहता है. यह योग्यही है. यदि मनुष्य एसी प्रनि न करेगा तो उसका संसारमें भ्रमण कैसा होगा?
संयमकी-मुनिधर्मकी भी जो कि परंपरा दुर्लभ है प्राप्ति हुई तो भी अल्पज्ञ गुरुक समीप सीखना धारण करनेवाले मुनिको संसारमे भय उत्पन्न करनेवाला धर्मोपदेश मिलना कठिन है. इस लिये बहुश्रुतज आचायंका आश्रय करना ही योग्य है. ऐमा इतना विवचन करनेका अभिप्राय है.
अल्पज्ञ आचार्यसे क्षपकको उत्तम-भवोद्धारक धर्मोपदेश नहीं मिलने से मरणकालमें वह संयममे भ्रष्ट होता है. तात्पर्य यह है कि दीर्घ कालतक प्राणिसंयम और इंद्रियसंयमका पालन क्षपकने किया था परंतु मरण समयमै उससे वह भ्रष्ट होनसे वह चारित्राराधानासे रहित हो जाता है. संयमसे भ्रष्ट वह क्यों होता है इस प्रश्नका