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मूलाराधना ९४५
त संबंधिननं लोके अतिर्निदितं ।
जीवही अप्पबहो जीवदया होड़ अप्पणी हु दया ॥ बिसकंटओव्य हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि ॥ ७९४ ॥ आत्मघातोऽङ्गिनां घातो दया तस्यात्मनो दया ॥ fasis इव त्याज्या हिंसातो दुःखभीरणा ॥ ८२६ ॥
विजयोदय-जीववो अप्यवहो जीवानां घात आत्मघात एवं जीवानां क्रियमाणा दया आत्मन एव कृता भवति । सहदेवजीवननोचतः स्वयमनेकेषु जन्मसु माते । कृतैकजीवदयोऽपि स्वयमनेकेषु जन्म पर रक्ष्यते । इति विपलिटकवत् परिहादिला दुम्की
अर्थ- प्राणिओका नाश करना यह अपना ही नाश करना है और पाणिपर दया करना ही अपने ऊपर दया करना है जो एकजन्म में प्राणीका घात करता है वह अनेक जन्मोंमें मारा जाता है और जिसने एकवार भी प्राणी के उपर दया की है वह अनेक जन्मोंमें इतर प्राणिसे रक्षा जाना है. ऐसा विचार कर चिपसे लिप्त हुए कंटक जैसे लोक दूर होते हैं वैसे दुःखभीरु मनुष्यको इस हिंसासे दूर रहना चाहिये.
सायमिव जन्मनि दर्शयति-
मारसीलो कुणदि हु जीवाणं रक्खसुत्र उब्बेगं ॥ संबंधियो वि ण य विस्तंभ मारितए जंति ॥ ७९५ ॥ उद्वेगं कुरुते हिंस्री जीवानां राक्षसो यथा ॥ तस्य विश्वासं जातु कुर्वते ॥ ८२७ ॥
सं
विजयोदया- मारणसीलो हु मारणशीलः परइननोद्यतः । राक्षस इत्र जीवानामुद्वेगं करोति । संचिनोऽपि नव उपयांत तस्मिन्धके ॥
इसी जन्म में हिंसासे हानि होती हैं इसका विवेचन करते हैं
अर्थ - जो मनुष्य दुसरोंको मारनेमें उद्युक्त होता है वह राक्षसके समान प्राणिको भय उत्पन्न करता है. उसके संबंधि मनुष्य भी उसके ऊपर विश्वास नहीं रखते हैं.
आश्वार
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