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मूलाराधना
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अथ गाथाष्टकेन परिणाम प्रणेप्यन तथाभावितधामण्यस्य आत्मसंस्कारसल्लेखनोद्यतस्य मुमुक्षोः समीक्षापूर्वक सहितककरणीयताप्रणिधानमाह
मुलारा-परिमाओ व्यवहाररत्नत्रयरूपः पर्यायः । मे मया । सेओ हित । खलु अपणो स्वस्येव घरोप - कारस्य पूर्व फूतस्यात् । काट कर्तुम । युक्तमिति शेषः ।
उक्तं च-अपहियं कायव्वं जा सका परिहिंद घ कायव्यं ।
अपहियपरहियायो थप्पहिया कादम्य ॥ अनियतवासके अनंतर परिणामका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरगाथा कहते है
अर्थ-मैने बहुतकालपर्यंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप मनिपर्यायका पालन किया है. मैने शिष्यों को वाचना भी दी है अथीत ग्रंथ और अर्थ दोनोका भी स्वरूप अच्छी तरह समझा दिया है, शिष्य पढाये हैं. वहुत शिष्य तयार किये हैं. अब इस समय अपना कल्याण करना योग्य है. अभिप्राय यह है कि, ज्ञान, दान और चारित्रका मैने चिरकालतक पालन किया है, निदीप ग्रंथ और अर्थ समझाकर शिष्य घुत्पन्न किये हैं, इस रीतीस स्वपरोपकार करनेमें मैने दीर्घ काल बिताया है. अब यहांसे में अपना ही हित करनेके लिये प्रयत्न करूंगा. इसरीतीमे मनकी एकाग्रता करना इसको परिणाम कहते हैं.
अपना हित करना ही श्रेयस्कर हैं इस विषयमें पूर्वाचार्य ऐसा कहते हैं
अपना हित करना चाहिये. शक्य हो तो परका भी हित करना कर्तव्य है परंतु आत्महिन और परहित इन दोनोमेस कोनमा मुख्यतया करना चाहिये ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर अवश्य ही उनम प्रकारमे आत्महित करना चाहिये,
किणुगु अधालंदविधी भत्तपइण्णगिणी य परिहारो ॥ पादोवगमणजिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो ।। १५५ ॥
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