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मूलाराधना
विजयोन्या-पत्रं पि कीरमाणे प्रतीकार अपकम्य वनोपशमः नीवेण पापकर्मोदयेन नापि भवेदपि, नहि बहिं ईव्यमाहाभ्यनेन कर्माणि
स्व च्छन्ति नदि कामयात ये समकोनापरस्येति प्रतीतमेतद् ॥ अभिमुम्पपापविषाचे प्रतीकारवैयर्थमाइ---- मूलाग–तिब्वेण घोरेण । उक्तं च--
___कस्यचिकियमाणेऽपि बहुधा परिकर्मणि ।।
पापकर्मोदये तीने न प्रशाम्यति वेदना ।। अन्ये पावकम्मोत्येण तिब्बा व सा होज इति पठित्वा पापकर्मोनये सनि बेदनोपशमो न भवेत् , चीत्रा या वेदना भवेदिति प्रतिपन्नाः ॥
अर्थ-इस प्रकार इलाज करनेपरभी, तीत्र कर्मका उदय होनेसे बाह्य उपचारांसे वेदनाका उपशम होता नहीं. बाह्य द्रव्योंसे किसी की वेदनाका उपशम होता है और किसीकी नहीं भी अतः कर्मोदयकी विचित्रता सिद्ध होती है.
अहवा तण्हादिपरीसहेहि खवओ हविज्ज अभिभूदो॥ उनसग्गेहिंव खवओ अचेदणो होज्ज अभिभूदो ।। १५०१ ॥ क्षपको जायते तीयरुपसर्गपरीषदः ॥
अभिभूतः परायत्तो विहलीभूतचेतनः ॥ १५६१ ॥ विजयोदया-अर.या तण्डादिपर्शसहति अथवा तादिभिः परीवहरभिभूतो भवेत्क्षपका, उपसगैामिभूतो निशेतनः स्यात ॥
निमित्तान्तरमपि ममाधिविन्नम्याभिधनेमूलारा--अचंदणो विधान्तो मूढो वा ।।
अर्थ-अथवा भूक, प्यास इत्यादि परिषहोंसे पीडित होकर क्षपक निवेतन होगा अर्थात मूठित होगा अथवा भ्रान्त होगा. तथा उपसगसे भी पीडित होनेपर मछित होता है.
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