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आबासा
मूलाराधना
इस सवभावनाका महात्म्य दो गाथाओंसे आचार्य कहते है |--
अर्थ--सत्वभावनाका धारक मुनि मनमें इस प्रकारसे विचार करता है- जर पृथ्वी ही मेरा शरीर थी उस समय मेरेको खोदना, जलाना, हलके द्वारा विदीर्ण करना, कूटना, फोडना, पीसना, चूर्ण करना इत्यादि बाधा देकर लोग मुझे सताते थे. अर्थात पृथ्वीकायिकअवस्थामें मैंने दीर्घकालतक पचनके द्वारा अवर्णनीय ऐसे दुःख सहे हैं. जब मैंने जलको अपना शरीर बनाया तब सूर्यके प्रचंडकिरणोंसे, अग्निकी ज्वालाओंसे मेरा शरीर अतिशय उष्ण होकर मैं बहुत बेदनायें सही. पर्वतकी दरी वगैरे ऊंचे स्थानॉसे अतिवगेसे मेरा पतन नीचे कठिन शिलाओंपर होनेसे मैने दुःख सहन किया है. खट्टा, लवण, क्षारादि रसयुक्त पदार्थों का मेरे साथ मिश्रण करके जब धगधगायमान अग्निके उपर मेरेको संतप्त करते थे तब मेरेको असह्य दुःख होता था, वृक्षापरसे नीचे शिलाओपर गिरनेसे, पांव ओर हाथोंके आघातोंसे, तीरनेके लिये उद्युक्त हुए मनुष्यादि प्राणिओंके विशाल वक्षः स्थलकी ताहनासे, प्रथम देखकर अनंतर पानी में जिसने प्रवेश किया है ऐसे बड़े हाधीका तीरना, मज्जन करना और शुंटासे जलक्षोभ करना इत्यादि कारणोंसे मेरेको महान् दुःख हुआ था.
जब जलावस्थाका त्यागकर मैने वायुरुप शरीर धारण किया तब वृक्ष, झुडुप, इत्यादिकसे धक्का पोहोचनेपर मैने दुःखोंका अनुभव किया है. जिनका शरीरं अतिशय कठिन है ऐसे माणिओंके आघातसे और मेरेसे भिन्न वायुसे टकरानेपर, मेरा शरीर चूर्ण-विचूर्ण होकर मैं बहुत दुःखोंका स्थान होगया था. अग्निज्वालाओंका जब मेरे शरीर से स्पर्श हुआ तब तो मेरे प्राणही निकल गये.
जब वायुशरीरको छोडकर अग्निको शरीररूपसे ग्रहण किया, तो बहुत बार धूल, भस्म, बालू वगैरह मेरे ऊपर डालकर लोगोंने मेरेको बुझाया, मुशलके समान जल धाराये पढनेपर, दंद काष्टादिकोंसे ठोककर चूर्ण करनेसे मेरेको बहुत ही कष्टोंसे सामना करना पडा. मातीके डेले और पत्थरोंके आधातसे तथा वायुके जोरदार धकेसे मैं दुःस्वविह्वल हुआ था ।
जब अग्निका शरीर छोडकर मैं फल, पुष्प, पत्र, कोमल अंकुर इनको शरीररूपसे धारण किया तव तोडना, खाना, मर्दन करना, दांतोसे चबाना, अग्निपर मुंजना इत्यादि प्रकारांसे मेरेको जनताने दुःख दिया है. जब मैं झाड, लता, छोटे पेट इत्यादिक रूपसे जन्मा तच छेदन करना, भेदन करना, उखारना, तोडना एक जग
और शृंटासे जल
का त्यागकर मैने वायुरुष शतिशय कठिन है ऐसे
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