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________________ मूलाराधना अर्थ-चारित्ररूपी उत्कृष्ट वस्तुको जलाकर भस्म करती है. और सम्यक्त्वफा नाश कर आत्माको अनंत संसारी करती है. आश्वास १८६ तम्हा हु कसायग्गी पावं उपज्जमाणयं वेव ।। इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि ॥ २६७ ।। जायमानः कषायाग्निः शमनीयो मनीषिणा ॥ इच्छामिथ्यातथाकारमणिपाताविवारिभिः ॥ २६७ ।। विजयोदया-तमा खु तस्मात्खलु कषायाग्निः पापमुत्पद्यमानमेव प्रशमयेत् । केन " इच्छामि भगवतः शिक्षा, मिश्या भवतु मम दुकृतं, नमस्तुभ्य " इत्येवभूतेन ससिलेन ॥ सहि स कथं संशमनीय इत्यत्राहः-- मूलारा इच्छेत्यादि-इच्छामि भवतां शिक्षामित्यभ्युपगमवचन । मिच्छादुक्कई मिथ्या विफलं भवतु मम दुष्कृतं, युष्मच्छिशावचनोलंघनलक्षणं दुराचरणमिति प्रार्थनावरनं । वंदण भगवतः प्रसीदत, नमस्तत्र भवद्भयो इत्यादिपूजावचनं, तत्ययसलिलेन विज्याहि विध्यापयेविध्यः । अर्थ-इसलिये यह कपायानि पापको अब उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही अर्थात पापवर्धक कपाय उत्पन्न होते ही हे भगवन् ! मैं आपका उपदेश शिरोधार्य समझता हूं, मेरे पातक मिथ्या होवें मैं आपको बंदन करता हूं ऐसे वचनरूप सलिलसे शान्त करना चाहिये. तह चेव णोकसाया सल्लिहियव्वा परेणुवसमेण ॥ सण्णाओ गारवाणि य तह लेस्साओ य असुहाओ २६८ ॥ संलिख्य गौरवं संज्ञा नोकषाया महाभटाः ॥ समस्ता निंदिता लेझ्या समाधान यता सता ।। २६८ ॥ ४८६
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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