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________________ इलाराधना બંધ वाक्यासहिष्णुतायाच्या प्रेरितः कोरपावकः । उदेति सहसा पंडो भूरिप्रत्युत्तरेन्धनः । एवं वा तदर्थो भाय्यः 1 प्रतिवचनेन जनितः प्रतिकूलाचरणपश्नसंचलितः । चंदः कषायदहनः सहसा त्यापः ॥ कपायानि उत्पन्न होकर जब अपकार करने लगता है तब आगे कहे हुए उपाय से उसका उपशमन करना चाहिये. इस विषयको आचार्य तीन गाथाओंसे प्रगट करते हैं अर्थ-शिष्यकी अयोग्य कार्यमें प्रवृत्ति रोकनेके लिये गुरु उपदेश करते हैं, परंतु जब शिष्य प्रतिकूल उत्तर देता है तब वह गुरुको सहन नहीं होता है. यह सहन न होना यही वायु है. इस वायु गुरुके मन में कोपरूपी अग्रिहोती है को उपदेश देते हैं. शिष्य पुनः प्रतिकूल वचन बोलता है. इस प्रतिकूलवचनरूपी इंधनसे गुरुकी क्रोधाग्रि उद्दीप्त होती है. ऐसा होनेसे अनंनानुबंधी अथवा अप्रत्याख्यान रूप कृपायानि प्रज्वलित होती हैं. तदनंतर वह जलिदो हु कसायग्गी चरितसारं उहेंज्ज कमिणं पि ॥ सम्मत्तं पि विराधय अणंतसंसारियं कुजा ॥ २६६ ॥ स दग्ध्वा ज्वलितः क्षिप्रं रत्नप्रितयकाननम् ॥ विधानि महातापं संसारांगार संचयैः || २६६ ।। विजयोदया-जलिदो हि कसायग्मी ज्वलितश्च कपाशाग्निः । चरितसारं चारित्राण्यं सारं दहत्येव । सम्यक्त्वं विनाश्यानतसारपरिभ्रमणे रतं कुर्यादेव । कोव संप्रज्वलित करापकारं करोति इत्याह- मूलारा करिणं पि कृत्स्नमपि । अनंतसारियं अनंतभवपरिवर्तनोद्यतं गुरु शिष्यं । भावास ३ ४८५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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