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आवासः
मूलाराधना
संयम और अनशनादि तपोका रक्षण होता है, स्वतःका वैयावृत्य दुसरोंसें कराकर अथवा करनेगलोंको अनुमोदन देकर रोगादिकोंसे निवृत्त हुआ साधु दुसरोंकी आपत्तिआको दूर कर स्वतःके सदृश उनके संयम और योग की रक्षा करता है. ऐसा कार्य करनेसे संयमकी सिद्धि करनेवाले मुनिको साहाय्य किया जानेसे साखिल्लता नामक गुणकी सिद्धि होती है. बयावत्य करनेवाला मुनि इंद्रिय और कषायोंके दोष आपद्ग्रस्त मुनिओंको दिखाता है तब वे इंदिरा निगह और कपागनिग्रह करते हैं. इस लिये पैवारय करनेवालेने इस कार्यमें सहाय किया ऐसा माना जाता है,
अदिसयदाणं दत्तं णिव्विदिगिच्छा य दरिसिदा होइ ॥ पवयणपभावणा वि य णिव्बूढं संघकजं च ॥ ३२७ ॥ दत्तं सातिशयं वानमचिकित्सा च दर्शिता ।।
संघस्य कुर्वता कार्य वाक्यं भावयताहताम् ॥ ३२७ ।। विजयोदया-अदिसयदाण पत्त अतिशयदान दतं भवति । रत्नत्रयामात् । शिविधिगछा य दरिसिया होर सम्यग्दर्शनस्य गुणो निर्षिचिकित्सा नाम सा प्रकटिता भवति । द्रव्यविचिकित्सा निरस्ता शरीरमलानां निराकरणाय मुगुप्मा चिना । पषयणपभाषणावि य प्रवचनमागमस्तदुक्तार्थानुमननात् प्रषचनप्रभावना भवति । णिचूह संघकाज च सेधेन कर्तव्यं कार्य च निश्चयेन संपादित भवति । एतेन कस्जपुग्णाणि इत्येतद्वयाख्यातम् ।
रनवयदानमिथिंचिकित्स ताकदनप्रवचनप्रभावनासंघकार्यनिर्वहण लक्षणगुणचतुष्टयं वैयावृत्त्यफलं व्याख्यातुमिदमाह
मूलारा--अदिसयदाणं लोकोत्तरदान, लोकोत्तमस्य रत्नत्रयस्य व्यापत्तिव्यपनोदनेन संपादनात । गिरिवदिगिछा द्रव्यविचिकित्सानिरासः, पुरीषादिवहमलापनयनात् । पबयणपहावणा आगमोक्तार्थानुष्वानासन्माहात्म्यप्रकाशनं, वैयावृत्त्यकृता फर्म स्यात् । णिध्बूढ निश्चयेन संपादित स्यात् ।।
अर्थ-वैवावृत्य करके आपद्ग्रस्त मुनिओंको रत्नत्रय का दान दिया जग्नेसे अतिशयदान नामक गुण की सिद्धि होती है, वैयाकृत्य करनेसे निर्षिचिकित्सा गुणकी प्राप्ति होती है. यह निर्विचिकित्सा सम्यग्दर्शनका गुण है. जुगुप्साके विना रोगी मुनीके विष्ठामूत्रादि मल दूर करनेसे द्रव्यविचिकित्साका त्याग होता है, वैयावृत्य करनेसे