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________________ मूलाराधना ९६ क्रमसे नाश होनेसे आत्माको स्थित्याची चिक मरण की प्राप्ति होती है. . अनुभवावीचिमरणका स्वरूप-कर्म पुद्गलोका जो रस अनुभव मे आता है उसको अनुभव कहते है, यह अनुभव कर्मपुङ्गलोंके परमाणुओंमें छह प्रकार की हानि रूपतासे तथा छह प्रकारकी वृद्धिरूपतासे हीन होता और बढ़ता है, क्रमसे रहे हुए इस अनुभव का तरंगों के समान क्रमसे नाश होता है. इसको अनुभवावीचिक मरण कहते हैं. प्रदेशवीच मरणका स्वरूप - आयुसंज्ञक पुलोंके प्रदेश जघन्य निषेकसे प्रारंभ करके एक दो तीन इत्यादि वृद्धिक्रमसे तरंगके समान नष्ट हो जाते हैं उसको प्रदेशावीचिक मरण कहते हैं. इस तरह आवीचिकामरण का विवेचन हुआ । २ तद्भव मरणका स्वरूप पूर्वभवका नाश होकर उत्तर भक्की प्राप्ति होना वह मरण है यमर इस जीवने अनंत बार प्राप्त किया है. यह मरण इस जावको दुर्लभ नहीं है. ३ अमिरका स्वरूप जी प्राणी जिस तरहका मरण वर्तमानकाल में प्राप्त करता है, वैसा ही मरण यदि आगे भी उसको प्राप्त होगा तो ऐसे मरणको अवधिमरण कहते हैं। इस मरणके देशाविमरण और ऐसे दो भेद हैं. सर्वाधिमरणका स्वरूप- प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेशों सहित जो आयु वर्तमानसमय में जैसी उदयमें आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बंधकर यदि उदयमें आवेगी तो उसको सर्वाधि मरण कहते हैं । देशाधिमरणका स्वरूप- जो आयु वर्तमानकाल में प्रकृत्यादि विशिष्ट होकर जैसी उदयमें आती है. वैसी ही आयु यदि किसी अंश सहश होकर बंधेगी और आगे के कालमें - भविष्यकालमें उदयमें आवेगी तो उसको देशावधिमरण कहते हैं. अभिप्राय यह है कि कुछ अंशमें अथवा पूर्णरूपसे साहस्य जिसमें पाया जाता है ऐसा अवधिसे विशिष्ट अर्थात् जिसमें पूर्ण साहश्य मर्यादित हुआ है अथवा जिसमें कुछ हिस्से में सादृश्यकी मर्यादा है और कुछ हिस्से में नहीं ऐसे मरण को अवधिमरण कहते हैं। आर्थतमरण — धर्तमानकालमें जैसा मरण जीवको प्राप्त हुवा है वैसा अर्थात् सदृशमरण आगे प्राप्त न होना उसको आद्यन्तमरण कहते हैं. यहां आदि शब्दसे वर्तमानकालीन प्रथम मरण ऐसा अर्थ समझना चाहिये । आश्वास १ ९६
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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