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________________ मूलारावना १२०९ अस्तेयत्रतभावनाः पंच गाथाद्वयेन निगदत्तिमूलारा-- अगगुष्णादारगहणं अननुज्ञाता । बसतिशयनासन पुस्तकास्तत्स्वामिभिरननुज्ञाताः । असंगबुद्धी अगुणवत्ता असंगबुद्धिरननुज्ञाप्यपि वत्स्वामिनं इच्छा कारश्रित्वा गृहीतेऽपि ज्ञानादिसाधनांगेऽना कचित्तता । पटनाथं परेषां पुस्तकादिकं वागत्या द्गृहीतं तन्त्रालोभगमनमित्यर्थः । नेपा द्वितीया । सदावत्तिय उग्गजायणं एतावदिति वावयानं एतत्परिमाणनि में दिव्यमिस्त्रियोजन साधनमात्रस्य अवग्रहस्य परिग्रहस्य पुस्तकार्याचनं । वाखितो दाता यावद्दाति तावद्गृहामीनि बुद्धरकरणमिति भावः सेवा तृतीया । कस्यैना इत्याह-उमाद्दणस्स अवगृह्यते धर्मागतया परिगृह्यते इत्ययमो ऽयमा ग्रहणयोग्यं वस्तु पुस्तकादिकं । अव जानातीत्यत्रयज्ञस्तस्यामावस्येत्यर्थः तीसरे व्रतकी भावनाओंका वर्णन ---- अर्थ -- ज्ञानोपकरणादिक अर्थात् शात्र, पिंछी. कमंडलादिक पदार्थ जिसके हैं उसकी परवानगी यदि 'न होगी तो उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए. उनकी अनुज्ञासे शास्त्रादिकको ग्रहण करने पर भी उनमें आसक्ति न रखना, इतना आप मेरेको दीजिए क्योंकि मेरा इतनेसे ही प्रयोजन सिद्ध होगा ऐसा मनमें विचार कर उतनी ही वस्तु मांगना चाहिए. जितनी वस्तु दाता देगा उतनी सब में ग्रहण करूंगा ऐसी भावना अचौर्यत धारक को करना योग्य नहीं है. जिस वस्तु से ज्ञान और चारित्र की सिद्धि होगी जिसके बिना ज्ञान और चारित्रको प्राप्ति न होगी ऐसी वस्तु लेना यतिको योग्य है. अनुपयोगी वस्तुकी याचना करना योग्य नहीं है. वज्जण मणष्णुणादगिहप्पबेसस्स गोयरादीसु ॥ उग्गहजायण मणुवीचिए तहा भावजा तहए । १२०९ ॥ अप्रवेशोऽननुज्ञाने योग्यांचाविधानतः ॥ तृतीय भावनाः पंच प्राज्ञैः प्रोक्ता महाव्रते । १२५८ ।। विजयोदयावज्जण मागित्वंसस्स गृहस्वामिभिरननुपातस्य गृहप्रवेशयजनं भाषना । गोवरादीसु गोरादिषु बम प्रविश, अत्र वा तिष्ठेति योऽननुज्ञातो देशस्तस्य अप्रवेशनं । उग्गहजाश्रण अणुवीचि अवग्रहयाचना सूत्रानुसारेण तृतीये भावनाः ॥ १५२ आश्वासः १२०२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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