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________________ आश्वासः मूलाराधना १६५५ स्पर्शयुक्त पदार्थ की इच्छा नहीं करते हैं और अगम स्पर्शके पदार्थ प्राप्त होनेपर द्वेष भी नहीं करते हैं थे पर्शने. द्रियजयी माने जाते है. जैसे निर्भय वीर पुरुष युद्धमें शत्रुको जीतता है वैसे ये महामुनि निर्भय और वैराग्ययुक्त इंद्रियों को जीतते है. निद्राके प्रतिपक्षभुत अपमाद ये है-अनशन, अवमोदर्य, रसाका त्याग करना, संसारसे भययुक्त रहना निद्राके दोषोंका विचार करना, रत्नत्रयमें प्रीति रखना, अपने दुष्कृत्योंका स्मरण कर शोक करना. स्नेह के प्रतिपक्षी-बंधुगण अस्थिर हैं, उनके लिये अनेक आरंभ परिग्रह करनेकी चिंता होती है जिसमे नरकादि कुगतिकी प्राप्ति होती है. धर्मम बंधुगण विघ्न उपस्थित करते हैं. इत्यादिक दोषोंका विचार 'करनेसे स्नेह प्रमादका नाश होता है. इस प्रकार अममादरूपी दाल हाथमे लेकर यति प्रमादरूपी शत्रसे लढते हैं. जैसे नौकाका छिद्र चंद करनेसे जल नहीं आता है वैसे अप्रमाद प्रवृत्ति प्रमाद जनित आगमन बंद होता है. HTTERARA गुत्तिपरिखाइगुत्त्रं संजमणयरं ण कम्मरिउसेणा ।। बंधेइ सत्तुसेणा पुरं व परिखादिहिं सुगुत्त ॥ १८४० ॥ कर्मभिः शक्यते भेत्तुं न चारित्रं कदाचन ॥ सम्यग्गुप्तिपरिक्षिप्त विपक्षरिय पत्तनम् ।। १९१२ विजयोदश-गुत्तिपरिखाइगुत्तं गुतिपरिणाभिगुप्त, संयमनगरं कमरिपुसेना न भक्तुं शक्नोति । परिखादिभिर्गुप्त शत्रुसेनेबेति । गुसेः संवरताख्याता ।। गुप्तीनां संवरलामाख्याति-- मूलारा - धंसेदि भनक्ति । अर्थ—परिखा-खाई, तट बगरहोंसे रक्षित नगरका शत्रुसेना नाश नहीं कर सकती वैसे गुप्तिरूपी खाईसे रश्रित किया गया यह संयमरूपनगर कर्मरूप शत्रु के द्वारा ध्वस्त नहीं किया जाता है.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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