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________________ मूलाराधना भाचार ६६२ लवपासमुद्र और कालोदधि समुद्र के मध्यमें छानवें अन्तद्वीप हैं. चक्रवर्तीका सन्य, मूतनेके, और गनेके स्थान, वीर्य, नाकका मल, कफ, कानका मल, दांतोंका मल इनमें अगुलका असंख्यात भाग प्रमाण शरीरके धारक सम्मूच्र्छन मनुष्य उत्पन्न होते हैं. भोगभृमि और अन्त पोंका छोट कर्मभूमिमें उम्पत्ति होना दुर्लभ है. कर्मभूमिमें भी वर्वर, चिलातक. पारसीक बगैरे देशीको छोडकर अंगदेश, वंगदेश, मगध गरह देशों में उत्पत्ति होना दुर्लभ है. उत्तम देशोंकी प्राप्ति होने पर भी चांडाल, धीवर, चमार, होर वगरे नीच कुलोंको छोडकर तप करनेके लिये योग्य अर्थात् मुनिधर्म धारण के योग्य कुलमें, जातिमें, जन्म होना दुर्लभ है. माताके वंशको जाति कहते हैं. उत्तम कुलकी प्राप्ति होना क्यों कठिन है इसका विवेचन उत्तम जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, ज्ञान, तप, पल इनकी प्राप्ति होनेपर गर्व न करना अन्य लोक भी इन गुणोंसे मेरेसे भी आधिक है ऐसा समझकर गई रहित होना, दूसरोंकी अवज्ञा न करना, जो गुणोंसे श्रेष्ठ हैं उनके साथ नम्रताका व्यवहार करना, दूसरोंके पूछने पर भी अन्य दोषोंका कथन न करना, अपने गुणोंकी स्तुति न करना इत्यादि परिणामोंसे उच्च गोत्रकर्मका बंध होता है जिससे मनुष्य उच्च कुलमें उत्पन्न होता है. परंतु मुखघुद्धिका मनुष्य उपर्युक्त परिणामोंका स्वीकार नहीं करता है. जो विपरीत परिणाम हैं. उनमें वह प्रति करता है, जिससे उसको नीचगोत्रका बंध होता है. ऐसे विपरीत परिणाम होनेसे पूज्य-उच्चकुलकी प्राप्ति नहीं होती है. इसलिये उच्च कुल दुर्लभ है. अन्य ग्रंथों में इस प्रकार वर्णन है जो पुरुष जाति, कुल, रूप, ऐश्चयें, आज्ञा, शरीरवल अथवा तप इत्यादिकी प्राप्ति होनसे उन्मत्त होकर दुसरों की निंदा करते हैं अथवा अपनी प्रशंसा करते हैं. दुसरोंकी अवज्ञा, अनादर और अशुभ नामकर्मका चंध कर लेते हैं. जिससे इस संसारमें उनको निंद्य कुलादिकमें जन्म धारण कर प्रतिसमय निंदा, अपमान, वगैरह दुःख भोगने पड़ते हैं क्योंकि उसने पूर्वजन्ममें अत्यंत अभिमान धारण किया था. . परंतु जो पुरुप कुल, जाति वगैरहकी उतमता प्राप्त करके भी दूसरों को अपनेसे भी बुद्धीसे विशिष्ट समझता है, जो किसी का अपमान, अवज्ञा नहीं करता है, जो बुद्धिमान् को देखकर नम्र होता है, पूरन पर भी जो दूसरोंके दोषोंका वर्णन नहीं करता है. अपनमें गुण रहते हुए भी गर्वरहित होकर उनका कथन करता नहीं वह मुण्यपुरुष उकचगोत्र शुभनामकर्म इनका तीन बंधकर इस संसारमें सर्व लोकांका प्यारा बनता है.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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