________________
आचाखा
मूलाराधना
उच्च कुलादिक जैसे दुर्लभ है वैसी नीरोगता अर्थात् रोगरहितदेह प्राप्त होना भी दुर्लभ है.
प्राणिओंको बांधना, ताडना, मारना, जलाना अस पानी न देना इत्यादि कार्यसे असातावेदनीय कर्मका वि बंध होता है. इस विमें प्रशंदलें हेमा विवेचन आया है
जो मूर्ख मनुष्य दयाका त्यागकर तीन संक्लेश परिणामी होकर अन्य प्राणीको बांधना, तोडना, पीटना प्राण लेना, खानेके और पीनके पदाथों से वंचित रखना ऐसे ही कार्य हमेशा करता है. एल कायम ही अगनेको सुखी मानकर जो नीच पुरुष ऐसे ही कार्य हमेशा करता है. ऐसे कार्य करते समय जिमके मनमें पश्चात्ताप होता नहीं उसको निरंतर अमातावेद य कर्मका बंध होता है. जिससे उनका देह मशा रोगपीडित ही रहता है. तब उसकी बुद्धि व क्रियाए नष्ट होती है वह पुरुष अपने हितका उद्योग कुछ भी नहीं कर सकता है.
इस विषयमें ग्रंथांतरमें एस उल्लेख मिलते हैं
यह प्राणी अद्यपि जीता है तो भी रोगरूपी महायजसे उसको सदा भयकी प्राप्ति होती है. जैसे आकाशसे अकस्मात् वज्रपात होता है वैसे अकस्मात् रोग आकर मनुष्यको पकडना है जिससे उसका देह नष्ट होजाता है.
जबतक देह रोगमे पीडित हुआ नहीं तबतक ही देहमें सामर्य, आध्य, सौंदर्य रहते हैं. जबतक हवाका धक्का फलको नहीं लगता है तबतक वह ढंटलसे संलग्न रहता है. वही दहमें रोगका अड्डा जम जानेपर उसके रूपादिक सब गुण वहांसे प्रयाण करते हैं जैसा अग्नि जब घरको चारो ओरम लगनेपर समर्थ पुरुष भी उममेसे अपनी अमृल्य वस्तुओंका रक्षण नहीं कर सकता है. वैसे रोगसे दह पाटिन होनेपर अपना हित सुखसे करने में यह जीव असमर्थ होता है.
जो प्राणी हमेशा परजीवोंका घात करके उनके प्रियजीवित का नाश करता है वह प्रायः अल्पायुषी ही होता है. आयुष्यका नाश होनेके बहुत निमित्त हैं
पानी, अग्नि, वायु, सर्प, बिच्छु, रोग, श्वासोच्छ्वास का रुक जाना. आहार न मिलना, और वेदना इत्यादिकोंसे आयुका क्षय होता है. इसवास्ते मनुष्यजन्म प्राप्त होनेपर भी दीर्घायुष्य की प्राप्ति होना मुलभ नहीं है.
Tage