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मूलाराधना
आश्वास
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घरली है. इस के द्वारा सर जीव दग्ध हो रहा है. इससे होनेवाली घोर वेदनासे उनके अंग फुटने लगे हैं. और उनको बडा ही दाह हो रहा है. इस अग्नि में केवल मनुष्य और पशु ही दग्ध हो रहे हैं ऐसा नहीं समझना परंतु समस्त चतुर्णिकाय देव भी जल रहे हैं. तात्पर्य यह है कि जगतके समस्त जीत्र वस्तुओका यथार्थ स्वरूप जानने में असमर्थ है. उनमें गाड अजान मा है.
दिम्मि पारि मुगिणा णाणजलोबग्गहेण विझविदे ।। डाहुम्मुक्का होति हु दमेण णिचंदणा चेय ।। ३१२ ॥ नत्र विध्यापित सद्यो भूयसा ज्ञानपाथसा ||
मन्ना यमपयोराशौ सुनायं तपोधनाः ।। ३१० ।। विजयोदया-म्मि पलस्मिम्लोके दह्यमाने । वरि पुनः मुगिणो णिवेदणानेच हति मुनर पर निशाना भवन्ति । कथं ? पाणिजलोवरगहण ज्ञानजलोपग्रहेण । विजयविदे नशे मोहाना। तुम्सुका दादोन्मुक्ताः। बमेण गगड़े पपशमन च । एतदुनं भवति---समीचीनमानजलप्रवाहोन्मूलितानानयनिग्रसरत्वं नाम बनीना गुण निवेदनाव नति।
मूलारा – निमि कस्मिन्लोक दल माने । गरि पुगः । गजलोयग्रहेण अस्मदेहादिभेदज्ञानसलिलपराहेण त्रिवि विध्यायिने । मोहमहाधिगि शेपः । अन्ये तु पदमी यम्य मोहानावित्यथ माहुः । दमेण रागद्रेपप्रशमन । शिवदणा चेव मुनय एवं निदा मगन्नीत्यर्थः । एतदुक्तं भवनि- ममीचीन ज्ञान जलानमरत्वं, बिनदनत्व व नातीनां गुणा ज्ञानानंदमय इत्यथ ।
अर्थ-गह मय जगत् अझानाग्निमे जल रहा है परंतु मुनीश्वर ज्ञानमय जल प्रवाहमे मोहरूषी अग्नि को बुझाकर भ्रान्ति: संशय अनध्यवसायादि वेदनासे मुक्त हुए हैं. अर्थात उनको देह और आनमा भित्र भिन्न है ऐसा ज्ञान हुआ है, देहही म हूं यह भ्रान्ति उनके हृदयसे नष्ट हो गई है. मुनिओने जितेन्द्रियता और गगद्वेषका उपशम इन उपयोंसे 'अज्ञानजन्य वेदनाका नाश किया है. अभिप्राय यह है कि मुनि सम्यग्ज्ञानरूपी जलप्रवाहसे अज्ञानाग्नि समृल शांन कर वदना रहित हुए है.
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