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________________ भाषा मूलाराधना aretets जिग्गहिदिदियदारा समाहिदा समिक्सयपेढुंगा। धण्णा णिराषयरखा तबसा विधुणंति कम्मरयं ॥ ३१३ ॥ निगृहीतेन्द्रियद्वारः सर्वचेष्टासमाहितः ।। धन्यैस्तपःसमीरेण धूयन्ते कर्मरेणवः ।। ३११ ।। विजयोदया-णिग्यहिदि दियदारा इंद्रियं द्विविध दुव्येन्द्रियं भावन्द्रियं इति । नत्र द्वन्यद्रिय पुदगलम्कंधा आत्मप्रदेशाश्व तदाधाराः । भावन्द्रियं ज्ञानावरणक्षयोपशम इंद्रियजनिनो रूमानुपयोगध । नहोमपोगेन्द्रिय गृहीतं तत्साहचर्याद्रागद्वेषायमनोश भनोझच विश्वये प्रवृती । इह पापकर्मनिमित्ततया रद्रियारशनोच्यते । नायमर्थःनिगृहीतंद्रिययिषपरागोषा इति 1 समाहिदा रत्नत्रये समपहितचित्ताः । समिदसम्बचेगा सम्यक्प्रवृत्तसहाः चषणा पुण्यवंतः गिराषपक्खा निश्चला इति केचिद्वदन्ति । अन्ये निरपेक्षाः सत्कारं लाम यानपेक्षमाणाः इति कथयति । तपसा विधुणंति कम्मरण तपसा कर्मरजोषिधूननं कुर्यन्ति । निगृहीतेन्द्रिय, रत्नत्रयैकाग्रता, निरषयचेशवत्ता, सत्कारादेनिरपेक्षता, तपसि वृत्तता, कर्मरजोयिधूननं च यतिगुणाः पतया गाथया सूचिताः। मुलारा - णिग्गहिदिदियदारा निगृहीतेन्द्रियविषयरागद्वेषाः । समाहिदा रत्नत्रये समाहितचिताः । समिदा सम्यक्प्रवृत्ता । चिट्ठा ईर्याभाषादिप्रवृत्तिः । णिरावयाला निश्चला सत्कारादिनिरपक्षा वा। अय जितेंद्रियत्वं, रग्नत्रयकामता, निरवायचेपत्वं, सत्कारादिनिरपेक्षता, तपसि वृत्तिमत्ता, कमरजोबिधूननं च यतिगुगाः चिनाः ।। अर्थ-ट्रव्येद्रिय और भावद्रिय ऐसे इंद्रियोंके दो भेद है. पहलम्कंधांकी इंद्रियाकार रचना होती है और आत्माके प्रदेश भी इंद्रियाकार बनते हैं उन दोनोंको भी द्रव्येन्द्रिय कहते हैं. आत्मप्रदेशांक आधार पर लस्कंध रहते हैं. ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमको भाबेंद्रिय कहते हैं. और रूप रस, गंधादिकोंको जाननेकेलिये आस्माकी प्रयत्ति होना इसको भी भावेंद्रिय कहना चाहिय. रूपादिकोंके प्रति उपयोग होना-उनको जानने में उद्यक्त होना इसको यहां इंद्रिय समझना चाहिये. अर्थात् उपयोगरूप भावेंद्रियको यहाँ इंद्रिय कहना चाहिये. क्योंकि उसके आश्रयसे जीवके राग द्वेष सुंदर और असुंदर स्पर्शादि विषयों में प्रवृत्त होने हैं. जगत में इष्टानिष्ट विषय में इंद्रियां प्रवन हो कर जीवको दाखित करती है. अतः मुनिगण इंद्रियोंके स्पादि विषयों में होनेवाले रागद्वेषोंको नष्टकर रत्नत्रयमें अपने मनको एकाग्र करते है. और अपनी सर्व प्रवृत्तियां-बोलना, चलना, वस्तु उठाना, आहार लेना वगैरह । क्रियायें प्राणिरक्षण के अभिप्रायसे करते हैं. वे अपने मनको निश्चल करते हैं. अथवा सत्कारकी, और लाभकी अपे SRI
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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