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________________ मूलाराधना आश्वास १८६४ शिष्यस्तस्य मनीपिणोऽमितगतिर्गित्रयालंबिनीम् ।। एना कल्मषमोषिणी भगवतीमाराधनां स्धेयसीम् ।। लोकानामुपकारको कृत सती विध्वस्ततापां हृदः ।। पद्मः सत्वमिषेवितस्य विमलां गंगा हिमाद्रेरिव ।। २२४४ ॥ आराधनपा पदकारि पूर्णा मासश्चतुर्भिर्न तदस्ति चित्रम् || महोयमानां जिनभाक्तिना सिध्यन्ति कृत्यानि म कानि सद्यः ।।५२४५।। स्फुटीकृता पूर्वजिनागमादियं मया जने यास्यति गौरवं परम् ॥ प्रकाशितं किं न विशुद्धघुदिना महार्घतां गच्छति दुग्धसो घृतम् ॥२२५६।। यावत्तिष्ठति पांडकंबलशिला देवाद्रिमूर्षिन स्थिरा ।। यावास्सिद्विधरा त्रिलोकशिखरे सिन्द्रः समाध्यासिता ।। सावत्तिष्तु भूमले भगवती विध्वंसयंती तमः ।। सा चैषा श्रमदुःग्यनोदनपरा चंद्रप्रभेवोऊचला ॥ २२४७ ।। .. श्रीमदमितगातिसूरिप्रशस्तिः ।। १ माथुरसबके यतिओंके आचार्य, सब मुनिओं को आनन्द प्रद ऐसे देवसन आचार्य होगये, जैस सूर्य कमलाको विकसित करता है, रावीका नाश करता है और पदार्थोको दिखाता है बस ये देबसन आचार्य निहत प्रदोष थे अर्थात दोषरहित थे और अन्यमुनिओंको दायासे रहित करते थे. जीवरादि तत्वोंका स्वरूप इन्होने भव्य लोगोंको दिखाया था २ देवसेनाचार्य के शिष्य आमिनगति नामक मुनि थे. वे गुणसमुद्र, शम और बताका आधारभूत थे। मदनका नाशकरनेवाले थे उनको बड़े विद्वान भी बंदन करते थे. आचार्य जैनमतकी प्रभावना करनेवाले इपे है. ३ इनके अनन्तर इस माथुर संघ नेमिषेण नामक आचार्य हुए हैं. सर्व शास्त्रसमुद्र के दूसरे किनारेके ये प्राप्त हुए थे. चंद्र जैसा लोकप्रिय रहता है. वैसे ये आचार्य लोकप्रिय व अज्ञानाधकारका नाश करनेवाले थे. PRANATERASHTRA १८६५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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