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मूलाराधना
आश्वासः
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मूलारा-णाम स्फुटम् । दबसलं शरीरकंटकादौ । अणुसुदे अनुवृते । घेणुद्धपो दुःस्वार्तः । ससलो मायाचापपान । भबिगो एवमनुनशल्यो गमिष्यामि का गतिभिति भयाकुलितचित्तः ।।
यह भावशल्य दोषोंका उत्पन्न करता है. इसको ही दृष्टान्तसे आचार्य स्पष्ट करते है ..
-सव्यशल्य धाग, कांटा वगैरह शरीरमें घुसने पर मनुष्य दुःखी होता है वैसे मिक्ष भी यदि मनम कपट मिथ्यात्र वगैरह भावशल्य धारण करेगा तो वह तीव दुःखसे पीडित होगा, और भयस चंचल होगा. यदि मैं शल्यका त्याग नहीं करूंगा तो कौनसी गति मेरेको प्राप्त होगी ऐसा विचार मनमें आकर इस भिक्षुको भय उत्पन्न होता है.
कंटकसल्लेण जहा वेधाणी चम्मखीलणाली य॥ रपयजालगतामदीय पादो सडदि पच्छा 11 ४६५॥ करके नुते प्राप्तो प्रथा त्वकीलनालिकां ॥
प्रतिवल्मीकरन्ध्राणि प्राप्यांधि सटति स्फुटम् ॥ ४७८॥ विजयोदया-कंटकसालण जहा कंटकास्येन शल्येन कारणभूतेन यथा। वेधाणी चम्मचीलनाली य ब्यधन. चमकीलनालिकाश्च भवन्ति । रपइयजालगत्तागदो य कुथितवल्मीकच्छिद्राणि प्राप्तः स पादः पतति पश्चाद्यथा ॥
एतदेव दृष्टान्तमुखेन समर्थयितुं गाथाद्वयेनाह---
मूलारा वैधाणी व्यधापनी सुपिरमित्यर्थः । चम्मकोल मांसांकुरः । णाली नाडी । पञ्चास्तिस्रः प्रथम पादे भवन्ति । रप्पाइजालगत्तागदो कुथितवल्मीकच्छिद्राणि प्राप्तः ॥
दृष्टांतसे उपर्युक्त अभिप्रायका स्पष्टीकरण करते हैं.
अर्थ--जैसे कांटा पाबमें घुसनेसे प्रथम छिद्र पडता है अनंतर उसमें अंकुरके समान मांस बढ़ता है तदनंतर यह कांटा नाडीतक सनसे पांवका मांस बिघड़ने लगता है. जिससे उसमें बहुत छिद्र पहने हैं. इस प्रकार से वह पांत्र निरुपयोगी होता है.