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मृलासबना
| आश्वास
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मूलारा--सामणं श्रामण्यं यतिधर्म । ससल मायाशल्यसहितं प्रकरणवशात् ।।
अर्थ- इस संसारका दुसरा किनारा प्राप्त होना कठिन है इस लिये आचार्य महाराज इसको समुद्रकी उपमा देते हैं. चतुर्गतिओमें भ्रमण करना यही संसार है. इसमें भ्रमण करनेवाले जीवोंको संयमकी प्राप्ति होना अतिशय कठिन है. परंतु दैवयोगसे ऐसे संयमकी प्राप्ति होनेपर भी मूर्ख मनुष्य शल्यसहित मरण प्राप्त कर संयमको नष्ट करता है. मायाशल्प, मिथ्यात्वशल्य और निदानशल्य एसे शल्यके तीन भेद हैं, तथापि यहां प्रकरणवश मायाशल्यका ग्रहण करना चाहिए, अधात् भूखंजन मायाशल्पर्स संघमका नाश कर मरण करते हैं. ऐमा यहां अभिप्राय समझना चाहिये. शंका-गाथाके द्वितीय चरणमें समानताका उल्लेख किया है परंतु तीसरे चरण में उसका ग्रहण न कर 'संयम' शब्दका ग्रहण किया है अतः प्रस्तुत समानताका त्याग कर अन्यका ग्रहण करना योग्य नहीं है।
उत्तर---इसका अभिप्राय यह है कि श्रमण शब्द का अर्थ मुनि है मुनि इस अर्थ में श्रमण शब्दकी प्रवृत्ति होनेमें श्रामण्य शुब्द अर्थात् समानता शब्द कारण है. समानता अर्थात् श्रामण्य और संयम दोनो शब्द एकार्थ वाचक है इसीवास्ते संयमशब्दकाभी प्रयोग करना अनुचित नहीं है.' सावधक्रियापरो नायं श्रमणः' अर्थात् पापक्रिया करनेवाला मुनि नहीं कहा जाता है ऐमा लोक बोलते हैं. इसलिये आत्मामें भावशल्य रहना अथान कपटविचार रहना अयोग्य ही है.
जह णाम दव्वसल्ले अशुदुदे वेदणुदिदो होदि ॥ तह भिक्खू वि ससल्लो तिब्बदुहट्टो भयोनिग्गो ॥ ४६९ ॥ द्रव्यशल्ये यथा दुःखं सर्वांगीणव्ययोदयः ॥
भावशल्ये तथा जन्तोर्विज्ञातव्यमनुते ॥ १७ ॥ विजयोदया--जह णाम यथा नाम । यसले शरकंटकादी अणुचुरे अनुवृते अनिराकृते । थेवणुदिदो होनि घेदनातॊ भवति | तह तथा भिक्खु वि मिचरपि। ससल्लो भाषशस्यवान् | तिम्ब दुहितो तीवदुःखितो भवति । भयोब्धिम्मो भयेन चलो भवति । एषमनुद्धतशत्यो गमिष्यामि कां गतिमिति भयमस्योपजायते । एवमर्थं इष्टान्तेनाविरोधयति ।
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