SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 862
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलारावना आर ८४२ प्राणिसंयमविराधना स्वप्रमाणाधिकायो व्यर्थः प्रतिलेखनादिव्यासंगः । प्रमाणहीनायां गात्रसकोचदुःखं । आयां अकायिकर्जपीडा । अदायां अंगभारेण नमन्त्यां तद्गतजंनुबाधा, शयितुः क च । प्रकटायो मिण्याष्टिजनानुगः । अनुगोताया दृष्टिपत्तियंशाहशकोऽयमपरिहारः || भूमिसंस्तरका निरूपण करनेवाली गाधा अर्थ-जो जमीन मृद नहीं है वह संस्तरके लिये योग्य है. जमीन मृद होगी तो चह हाथ और पायोंके मईनसे बाधित होगी. बह जमीन अमुपिर होनी चाहिये. सुषिर -छिद्र होंगे, बिल, होंगे तो उसमेंसे निकले हुए और प्रविष्ट हुने सतीवों के माधोगी. वसमा होनी चाहिये, वह ऊंनी नीची होनसे क्षपकको सोनमें बाधा उत्पन्न होगी. यदि वह गीली होगी तो जलकायिक जीवोंको बाधा पईचगी, इसलिये वह मूखीही होनी चाहिये. कृमिटिकादिकसे रहित. प्राणिरहित, प्रकाशयुक्त, आपकके देप्रमाणके अनुसार और गुप्त, सुरक्षित होनी नाहिये. यदि प्रकाशरहित हो तो असंयमका परिहार हो नहीं सकेगा, प्राणिस युक्त होगी तो प्राणिसंयमका रक्षण क्षपक नहीं कर सकेगा. भिकीटक सहित होगी तो कीटादिक जंतु क्षपकके दहको काट खायेंगे. वह शरीरप्रमाणसे अधिक होनेपर प्रतिलेखनादिकका व्यासंग अधिक करना पडेगा. प्रमाणसे हीन होगी तो शरीरसंकोच करना पड़ेगा. यदि दृढ न होगी तो क्षपकके अथवा शोधन करनेवाले के शरीर से दब जाने पर उसमें रहनेवाले जंतुओंको वाधा पोहोचेगी. यदि गुप्त न हो तो मिथ्या दृष्टि लोफोंका संसर्ग होगा. अतः मदत्त्वादिदोषारो वर्जित पृथिवी-जमीन संस्तररूप होगी. अन्यथा नहीं. "जवान विद्धत्यो य अफुडिदो णिकंपो सब्बदो असंसत्तो । समपट्टो उज्जोये सिलामओ होदि संथारो ।। ६४२ ।। विश्वनो स्फुटितोकपः समपृष्ठी विजंतुकः ।। उशेत मरणः कार्यः संस्तरोस्ति शिलामयः 11 २६.७॥ विजायोदया-विद्धस्थो य विध्यस्तः । दाहारफुट्टनादर्षणाद्वा । अफुग्दिो अस्फुटिनः । पिाऊंगो निश्चतः । | सचदो समंतात् । असंसनो जीवरहितः । पापाणमत्कुधादिरहिन रति यावत् । समपटो समपृष्ठः। उज्जोग उद्योत । सिलामओ होदि संधारो शिलामयो भवति संस्तरः ॥ S
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy