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मूलाराधना
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आराधक चित्तकी एकाग्रताका वर्णन करते हैं.
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अर्थ --- रत्नत्रयाराधनाको विषय करनेवाला, अनुभूत विषय जो रत्नत्रय उसको जाननेवाला, और जिसमें वह ' इस शब्द ज्ञानाकार प्रदर्शित किया जाता है ऐसे ज्ञानको स्मृति कहते हैं. यह स्मृति मतिज्ञानका एक मेद है. वस्तुकं यथार्थ स्वरूपपर श्रद्धान होना उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं. वस्तुकं यथार्थ स्वरूपको जानलेना सम्यग्ज्ञान है. और रागद्वेषाभावरूप समताको चारित्र बोलते हैं. इस रत्नत्रयका शास्त्रोंसे स्वरूप जाननेपर सम्यग्दर्शनरूप, सम्यग्ज्ञानरूप और चारित्र रूप तीन प्रकार के परिणाम आत्मा में उत्पन्न होते हैं. इस परिणामत्रय मंचघी जोक ज्ञान उत्पन्न होता है उसको इस प्रकरण में स्मृति कहना चाहिये, जितना जगत्का व्यवहार चल रहा है उसको स्मृतिही कारण है. स्मृतिका नाश होनेपर जगद्व्यवहार नष्ट होगा. यह बात ध्यान में रखकर स्मृतिज्ञान नगरेको साधारण करना योग्य है ऐसा विचार करना चाहिये. जयतक मेरे आमायनादि रोग पारण करने का मामयी गोद में शक्ति कम हो जाने आतापनादि योग में कर नहीं सहूंगा तब लखना मेरेद्वारा निभाना कठिन हो जायेगा. शक्तिरहित होनेपर नाना प्रकारके तपोंसे में कर्मको निर्जीर्ण करूंगा ऐसी इच्छा करना व्यर्थ ही है. क्यों कि उस समय मेरे द्वारा जो तप किया जावेमा उसमें अतिचार उत्पन्न होंगें. तपमें अतिचार लगनेपर सल्लेखना कैसी सिद्ध होगी? अतः जबतक निरतिचार तप करने में मेरा सामर्थ्य है तबतक में सल्लेखना धारण करनेके लिये उयुक्त होऊं ऐसा मनमें विचार करना चाहिये. जबतक रत्नत्रयाराधन करनेमें मन श्रद्धायुक्त - उत्साहयुक्त हैं तबतक में सल्लेखना धारण करनेमें समर्थ होऊंगा ऐसा विचार साधु करे. प्राणिआको उपशमलब्धि, काललब्धि और करणलब्धि इनकी प्राप्ति होना दुर्लभ है. विद्वान मित्र जैसे प्राप्त होना दुर्लभ है. ये तीन लब्धियां श्रद्धाके मूलकारण हैं. श्रद्धा विनष्ट हो गई तो फिर उनकी प्राप्ति होना अतिशय दुर्लभ है. श्रद्धाके विना अतिशययुक्त मनुष्य भी आहारका त्याग सुखसे नहीं कर सकता हैं. जबतक इंद्रियां अपने विषयको ग्रहण करनेमें समर्थ हैं तबतक सल्लेखना धारण करना योग्य हैं. नेत्र और कर्ण अपने विषयको ग्रहण करनेमें असमर्थ होनेपर देखनेसे और श्रवण करनेसे जो असंयमका परिहार होता है वह कैसा होगा ? देखकर और सुनकर यह अयोग्य है ऐसा मुनि जानेंगे अन्यथा नहीं.
आश्राम
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