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मृलाराधना
आश्वासः
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क्रोधादिक चारोंसे हिंसादि कार्यों में स्वयं प्रवृत्त हुए मनुष्योंको शरीरके द्वारा जो अनुमति देना उसके भी चार मंद है. यथा क्रोधानुमतकायसंरंभ, मानानुमतकायसंग्भ, मायानुमतकायसरंभ और लोभानुमतकायसंरंभ ऐसे चार भेद है. मत्र मिलकर सरंभके बारा भेद हुए.
समारंभ भी बाग भेद होते है, उनका क्रम-क्रोधकृत कापसमारंभ, मानकृत काय समारंभ मायाकृत कायमारंभ और लाभ कृत काय समारंभ, क्रोध कारितकायसमारंभ, मानकारितकाय समारंभ मायाकारितकायसमासंभ, और लोभ कारित काय समारंभ, शोधानुमत काय समारंभ. मानानुमन काय समारंभ. मायानुमतकायसमारमं और लोभानुमत, कायसमारंभ.
आरंभ के भी संरभ और समारंभ के समान यारा भेद होत हैं
यथा-फांधकृतकायारंभ, मानकृत कायारंभ, मायाकूच कायारंभ और लाभकत कायारंभ. क्रोधकारित कायारंभ, भानकारितकारारंभ, मायाकारित कायारंभ, लोभाकरित कायारंभ मायानुमत कायारंभ और लोभानुममत कायारंभ मानानुमतकायारंभ, मायानुमत कायारंभ और लोभानुमत कायारंभ इस प्रकार आरंभके भी पारा भेद होते हैं इस प्रकार कायके आरंभतक छत्तीस भेद होते हैं. इसी प्रकार वचनके छत्तीस और मनके छत्तीस मिलकर एकसो आठ भेद जीवाधिकरणके होते हैं.
अजीवाधिकरणस्य चतुरो भेदानाचष्टे--
संरंभो संकप्पो परिदाबकदो हवे समारंभो ॥ आरंभो उइबओ सव्वबयाणं विसुद्धाणं ।। ८१२ ॥ णिवखेवो णिव्वति तहा य संजोयणा णिसग्गो य ॥ कमसो चदु दुग टुग तिय भेदा होति हु विदीयस्स ॥ ८१३ ।। सरंभोऽकथि संकल्पः समारंभो विसापकः ॥ शुद्धबुद्धिभिरारंभः प्राणानां व्यपरोपकः ॥ ८३८
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