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आधार
इसलिये बालाचार्यकी प्रवृत्ति कैसी होनी चाहिये इसका वर्णन ग्रंथकार करते हैंयूलाराधना
अर्थ-हे बालाचार्य ! ज्ञान, दर्शन और चारित्रमंबंधी अतिचारोंका न्याग करो. याचना काल और स्वाध्यायकालको छोड़कर अन्य काल में पठन करना, अथवा स्वाध्याय करते समय क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भाच शुद्धि के विना स्वाध्याय करना, ग्रंथको और पढानेवाले गुरुको छिपाना, ग्रंथ अशुद्ध पढना तथा अर्थका विवेचन अन्यथा करना, ज्ञान और ज्ञानवानोंका आदर न करना ये सम्यग्ज्ञानके अतिचार है.
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और संस्तव ये सम्यग्दर्शनके अतिचार है ( इनका खुलासा दर्शनविनयके प्रकरणमें आया है. समितीकी भावनाओंका अभाव होना यह चारिवातिचार है. इन सब अतिचारोंको च्यवनकल्प कहते हैं. इनका तुम त्याग करो स्वकपक्ष-जैनधर्मस्थ मुनिगण और परपक्ष मिथ्याष्टिजन इनमें रिकभावका समान कर, मन समाधानका नाश करनेवाले बादका भी त्याग करो. वादमें प्रवृत्त हुआ पुरुष अपना जय जिस उपाय से होगा और अन्यका पराजय जिससे होगा उसीको इंडता है. परन्तु वस्तुके · सत्यस्वरूपको पतलाकर समाधान करना नहीं चाहता है. हे पालाचार्य ! आप विष और अग्निके समान ऐसे क्रोधादिकषायाँका त्याग करो. ये कपाय अपनको और दुसरोंको मारते हैं इसलिए इनको विषसमान कहते हैं, अग्निके समान हृदय को जलाते है अतः इनको अग्नि कहते हैं. कषायके विषयमें पूर्षाचार्य ऐसा कहते है--
ये कषाय |लोक्यमें मल्लके समान है, कुल और शीलके शत्रु हैं. जिसको आत्मासे बड़े कष्टसे दूर कर सकते है ऐसे मलस्वरूप हैं, ये कषाय तपस्विओंका यश नष्ट करते है और तपका घात करते हैं. इन कपायोंसे प्राणिऑको दुर्भाग्य की प्राप्ति होती है. . . . . . . . . . . .
इस कषायशत्रुस परलोकका ही नाश होता होता है ऐसा मत समझो. ये भयंकर कषाय इह लोकका भी REL नाश करते हैं. केवल ये कशय धर्ममात्र का ही घात कर रह जाते है ऐसा नहीं, इनसे काम और अर्थका, भी नाश होता है.
णाणम्मि देसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु ॥ ण चाएदि जो ठवेदूं गणमप्पाणं. गणधरो सो ॥ २८६ ॥
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