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________________ आश्वासा मूलाराधना दर्शने चरणे ज्ञाने श्रुतसारेषु पस्त्रिषु ।। निधातुं गणमात्मानमसमर्श गणी न सः॥ २८६ ।। विजयोन्या-पाणम्मि य । रत्नत्रये गणमात्मानं च यो न स्थापयितुं समयों नशसौ गणधरः । प चापदि न । समर्थः । बहयो मम वशवर्तिनः सन्ति यतावता भरतो गणियों माभूदिति भावः। मूलारा-चाएदि शक्नोति । अर्थ--सिद्धांतके सारभूत ऐसे सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र में जो अपनको और गणको स्थापन करने में असमर्थ है वह मुनि गणधर पदके योग नहीं है. हुरमुनि मेरे इ सलियेगाधर आचार्य ई ऐसा गर्व तुम्हारे मनमें कभी भी उत्पन्न नहीं होना चाहिये. .. कीरकाहिं गणधरो भवतीति चेदेवभूत इत्याच - ' गाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु ।। . चाएदि जो ठवेदु गणमप्पाणं गणधरो सो ॥ २८७ ॥ दर्शने घरणे जाने श्रुतसारेषु यस्त्रिषु ॥ निधातुं गणमात्मानं शक्तोऽसौ गदितो गणी ।। २८७ ।। विजयोन्या-सपार्था गाथा । . . . . अर्थ-सिद्धांतके सारभूत ऐसे सम्यग्दर्शन; ज्ञान और चारित्रमें जो अपने को और गणको स्थापन करनमें समर्थ है वही गणधर हो सकता है . : ... ... . . पिंडं उबाह सेज्ज अविसोहिय जो हु भुजमाणों हु । मूलठ्ठाणं पत्तो मूलोति ये समणपेल्लो सो. ।। २८८ ॥ ५०३
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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