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चतुर्षों भायमा नन्दि...
अणुबंधरोसविग्गहसंसचतवो णिमित्तपडिसेवी ॥ णिविवणिराणुतावी आसुरिअं भावणं कुणदि ॥ १८३ ॥ निष्कृपो निरनुक्रोशः प्रवृत्तक्रोधविग्रहः ।।
निमित्तसेवको धत्ते भावनामासुरी यतिः॥ १८५।। विजयोदया-अगुपंधरोसचिम्गहसंसत्ततवो णिमिमपडिसेंधी रोषश्च विग्रहधरोपविग्रही अनुबंधेन रोपविग्रही अनुबंध रोषधिग्रही अनुबंधपधिग्रहाभ्यां मसत संबई अनुबंधरोपविग्रहसंसक्तं तपो यभ्य स तथोक्तः । निमिसाजीबीच यः स आसुरीभावनां करोति इति कचित्कथयति । अनुवदो भातरानुयायी रोषणे यस्य सोऽनुबंधरोपः। विप्रहेण कलहन संसक्तं तपणे यस्य सः विग्रहसंलक्ततपावादेन भण्यते । अनुबची रोषविग्रही अस्येत्यनुबद्धरोपविग्रहः। सम्यगतीबसंसक्तं संबर परिग्रहेण तपो यम्प स संसक्ततपोऽभिलापयाच्यः । णिफिचणिराणुतावी यः निदेयः पाणि, कृत्वापि परपीडो अनुतापरहिनधासुरी भावनां करोति ।
आसुरी व्याहरनि
मूलारा- अण्वद्भरोसबिगहसंमत्सतवोणिमिलपडिसेवी गिक्रियाणिराणुताची आसुरियं । अनुयद्धरोषविग्रहाभ्यां नित्यप्रयुनोथकलहाभ्यां संयक्त संयुक्त तपो यस्य स तथाभूततपाः । अथवा अनुबद्धरोपो भवांतरानुयायी क्रोधः । विग्रहमयुक्तनपा: कलागुक्ततपाः । यदि वा अनुबद्धरोपविनश्ववासी संसक्तनपारचेति प्राझं । संसक्तं सम्यगतीव म परिमहा संवर्द्ध तपो यस्यति विप्रहः। गिमित्तपडिसेवी। ज्योतिषाचाजीबी। णिचिव निर्दयः । णिराणुतावी कृत्वापि परपीडां पचात्तापमकुर्बन ।
चतुर्थ भावना--आसुरी भावनाका वर्णन...
अर्थ-जिसका कोप अन्य मवमें भी गमन करनेवाला है और कलह करना जिसका स्वभाव पन गया है वह मुनि रोष और कलहके साथ ही तप करता है ऐसे तपसे उसको असुरगतिकी प्राप्ति होती है. जिसका तप परिग्रहके साथ रहता है अर्थात् तप करता हुआ भी परिग्रहोंपर जिसका मोह रहता है, जो निर्दय स्त्रभावी है, प्राणीको दुःख देकर मी जिसके अन्तःकरणमें पश्चाताप उत्पन्न होता नहीं है ऐसा साधु असुरगतिमें उत्पन्न होता है. ज्योतिष, सामुद्रिक बगैरे कहकर जो मुनि आहारादिककी प्राप्ति कर लेता है वह असुरगतीको जाता है.
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