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________________ मूलाराधना बाबासा इतः प्रबंधन गाथै कत्रिशता परममुरिक वर्णविष्यन्नादौ यंघच्छेदानंतरभाषिनी लोकान्तप्रापणीमेकसमयिकी नैस. गिकी जीवस्योर्तुगविं दृष्टान्तेन समर्थयते-- मूलारा-पयोगको प्रकृष्टदेगेन । समुपपनि यथा पीजकोशबंधावरंडवीजमाश्वेचो गच्छति तथा मनुष्यादिभवप्रापकगत्याविकनबंधच्छेदादात्मापीत्यर्थः ।। अर्थ-नाम कर्मक क्षयसे तैजस बन्धका नाश होता है और आयुफमके क्ष्यसे औदारिकपन्धका भी नाश होता है, इस प्रकार बंधमुक्त हुआ यह जीप एरंडका चीज जैसे बंधनमुक्त होकर ऊपर जाता है वैसे उत्कृष्ट घेगसे जाकर मुक्तिस्थानमें स्थिर होता है. अयोगिकेवली उपान्त्य समयमें तेहत्तर प्रकृतिओंका क्षय करते हैं उन प्रकृतिओंके नाम इस प्रकार है देवगति २ देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ३ मनुष्यगतिमायोग्यानुपूर्वी. ५ औदारिकादिक पांचशरीर, औदारिकादि तनि अंगोपांग, निर्माण नामकर्म, बंधननामकर्मके पाचप्रकार, संघातके पांच मेद, छह संस्थान, छह सहनन, स्पर्श नामकर्मके आठभेद, रसनामके ५ भेद, गंधनामकर्म के दो भेद, वर्णके पांचभेद, अगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विद्यायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येकशरीर, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, अनोदयः अयशकीर्ति, अन्यतरवेदनीय और नोर्गोत्र ऐसी तिहत्तर प्रकृति है उनमें मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व कर्मका नाश अन्त्य समयमें होता है ऐसा कोई आचार्य कहते हैं उनके मतसे उपान्त्य समयमें ७२ बहतर प्रकृतियोंका क्षय होता है. तीर्थकरके तेग प्रकृतिओंका अन्त्य समयमें क्षय होता है और अन्य मुनिओक चारा प्रकृतिका क्षय होता है. संगजहणेण चलहुदयाए उर्दु पयादि सो जीवो । जध लाउगो अलओ उप्पददि जले गिधुडो वि ॥ २१२८ ॥ आवेशनाशुगमिव संपूर्णेन नियोजितः ॥ अलावुरिव निर्लेपो गत्वा माक्षेऽवतिष्ठते ॥ २२०६ ॥ .
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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