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मुलाराधना
भावासः
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यज्ञो हि भूत्यै सर्वस्य तस्मायके वधोऽवधः ।। अग्निदो गरदश्चय शत्रपाणिर्धनापहः ।। क्षेत्रदारहरशेति पड़ने आतनागिनः ।।
आततायिनमागांगमपि वेदार्गावर सिजन ।
जिमने जिपामगा। बतादामन ।। कालमहरं द्रव्यभावगलाम ! अब शिक्षाधिकारका आचार्य विस्तृत वर्णन करते है
अर्थ-श्री जिनेश्वरका बचन जीयादि नव पदार्थाका प्रमाण और नयके आश्रवसे वर्णन करता है, अतः उनको निपूण विशेषण है. जिनवचन शुद्ध है क्योंकि उसमें पूर्वापरविरोधादि बत्तीस दोष बिलकुल नहीं है, यह विपुल है अर्थात् नाम स्थापनादि निक्षेप, प्रतिज्ञा हेतु उदाहरणादि अनुमानके अंग, शब्दका व्याकरण द्वारा धातु प्रत्यय विभक्ति इत्यादि रूपमे स्पष्टीकरण, सत्संख्यादिक अनुयोग और नैगम संग्रहादिक नय ऐसे अनेक विकल्पोंमे जीवादिक अर्थाका सविस्तर विवेचन करता है. अतः उसको विपुल कहते है. जिनवचनका प्रत्येक शब्द अर्थसे गाढ भरा हुआ है अतः उसको निकाचित कहते हैं. जिनवचनको छोडकर अर्थात् इसस बहकर उत्कृष्ट किसीका भी वचन नहीं है इसलिये यह अनुत्तर है. अन्यमतोंके वचन पुनरुक्त है, अनर्थक-अर्थहीन और पूर्वापरविरोधयुक्त हैं. प्रमाणाविरुद्ध हैं परंतु जिनवचनमें ये दोष नहीं है इसलिये यह वचन अनुत्तर है. इस वचनमें सर्व जीवोंका कल्याण करना यह गुण है. इतरोंके मत सर्व जीवोंका रक्षण नहीं करते हैं थोडे जीवोंका ही चे रक्षण करते हैं जिघासन्तं जिघांसीयान तेन ब्रह्महा भवेत ''अपनेको मारनेके लिये आवेगा उसको मारना चाहिये इस कृत्सके करनेसे वह मारनेवाला बनयाती नहीं होता है,
यज्ञार्थं पशवः सृष्टा इत्यादि-ब्रह्मदेवने यज्ञ करनेके लिये पछु उत्पन्न किये हैं. यज्ञ सर्वको ऐश्वर्य देता है अतः यजमें प्रणिध करना हिमा नहीं है वह अहिंसा ही है.
अग्निदो गरदश्चैवत्यादि-जो मनुप्य अग्निकद्वारा दमरोंके घर जलाता है, जो अन्नमें विए देकर भारता है, जो शस्त्रस मारना है, जो धन हरणा करता है और जो खेत और मरेकी श्री हरण करता है, ऐमे छे प्रकार
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