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चूलाराधना
आचांसः
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प्रश्न, अनुप्रेक्षा, आम्नाय. और धर्मोपदेश ऐसे पांच भेद है.
प्रश्नको स्वाध्याय क्यों मानना चाहिये? ग्रंथ और अर्थमें संशयका नाश करनेकेलिये अथवा इस पदार्थका ऐमाही स्वरूप है अन्य नहीं है इत्यादि रूपसे जो स्वयं निश्चय किया होगा उसको पुष्धि लानेकलिये जो विहानाको पूछना नद मन है. पण स्वाध्याय करनेवाला यदृच्छासे जान लेता है अथवा अर्थका पठन करता है. प्रश्न करना भी स्वाध्याय ही है क्योंकि प्रश्न अध्ययनमें प्रवृत्ति करनेके लिये कारण है. जसे जिस काष्ठमे इंद्रकी मतिमा बनाना है उसको हम द्रव्यनिक्षेपसे इंद्रप्रतिमा कहते हैं, पैसे प्रश्न भी स्वाध्याय करनेमें जीवको प्रेरणा करेगा अतः उसको स्वाध्याय कहना कुछ अनुचित नहीं है. अथवा पढ़े हुए ग्रंथमें भी क्या यह शाख इस रीतीस 'पहना चाहिये ! अश्चवा अन्य प्रकारसे पहना चाहिय एसा यदि ग्रंथमें संशय उत्पन्न हुआ हो किंवा अर्थमे यदि संशय हो तो इस पदका अथवा इस वाक्यका क्या यह अर्थ है ? इस तरहसे पूछना यह प्रश्न स्वाध्यायको कारण होनेमे स्वाध्याय कहा जाता है. अथवा जो निश्चित किया है ऐसे अर्थमें और दृढता उत्पन्न करनेकेलिये जो प्रश्न किया जाता वह भी स्वाध्याय को कारण होनसे म्वाध्याय ही है.
अनुप्रेक्षाको स्वाध्यायपना कैसा ? जाने हुवे पदार्थका मनक द्वारा बार वार चिनना करना अनुप्रेक्षा है. यह अन्नजेल्परूप होनेसे इसमें मी स्वाध्यायपना है ही. उकचारणसे शुद्ध, जो शास्त्रको बार चार घोकना उमको आम्नाय कहते हैं. यह भी स्वाध्याय है. आक्षपणी, विक्षपणी, संवेजनी. निवेजनी, एसी चार कथाओंका भव्याके सामने कथन करना धर्मोपदेश है यह भी स्वाध्याय है, ऐसे पांचो प्रकारके स्वाध्यायोंमें जिसने अपने मनको संलग्न किया है उसको श्रामण्यप्राप्ति होती है. अर्थात् अपने मनको जो साधु स्वाध्यायमें स्थिर करके रागद्वेषादिसे उसको हटाता है. शुभसंकल्पोंमें स्थिर करता है उसकोही श्रामण्य प्राप्ति है. ऐसा इस गाथाका अभिप्राय जानना चाहिये,
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जो बिय विणिप्पडतं मण णियत्तेदि सह विचारेण ॥ णिग्गहदी व मणं जो करेदि अदिलब्भियं च मणं ॥ १४ ॥