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मूलाराधना
आश्चा
वृद्धजनानां च विराबना स्यात् । अनियिायां भएकस्य त्वगस्थिमानतनोः शीतातपादिदुःख दुःसहं स्यात् । अवियह अविकटा संघृतद्वारा विवृतद्वारायामनंतरोक्तश्च दोषो विण्मत्रोत्सर्गदुष्करत्वं च । अर्णयाराओ अंधकाररहिताः । अंधकारबहुलायां अर्सयमः स्यात् । दो तिणिवि द्वे तिस्रो या । ता यदि द्वे संपद्यते तदैकस्यां क्षपकस्तिष्ठेत् अन्यस्यामन्ये यतो धर्मश्रवणार्थमागतो मव्यलोकश्च । यदि तिम्रस्तदा क्षपकः, संघो धर्मदेशना च पृथक् पृथक् प्रवर्तते ॥ घेत्तव्वाओ पाहाः ॥
कोनसी निर्दोष वसतिकाओंका आश्रय लेना चाहिये इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं
अर्थ-जिनमें सुखसे प्रवेश कर सकते हैं और बाहर आसकते हैं, जिनका द्वार ढका हुआ है, जिनमें विपुल प्रकाश है, ऐसी बढी दो चसतिकायें क्षपकके वास्ते जघन्यतया होनी चाहिये. एक वसतिकामें क्षपक रहता है और दूसर्गमें अन्य मुनि और धर्मश्चत्रणासाये मेमोश रदते. गति तीन वसतिकायें होंगी तो एकमें क्षपक दुसरीमें संघके मुनि और तीसरीमें धर्मोपदेश ऐसी पृथक् पद्धति समझना चाहिये. वसतिकाका द्वार ढका नहीं होगा नो शीत वातादिकोंका प्रवेश होनेसे केवल चर्म और अस्थि ही जिसके अवशेष रहे हैं ऐसे क्षपकको दुःसह दुख होगा. अतः वसतिकाका द्वार ढका हुवा ही होना योग्य है. द्वार ढका नहीं होगा तो ऐसी वसतिकामें शरीरमलत्याग क्षपक कसे कर सकेगा? यदि वसतिकामें बहन अंधार होगा तो वहां रहने से असंयम की । प्राप्ति होगी. जिस वसतिकासे बाहर जानेमें और अंदर आनमें यदि कठिनता होगी तो आत्मविराधना और संयमविराधना ये दोष उत्पन्न होंगे. अन्यचाचष्टे
घणकुड्डे सकबाडे गामबहिं वालवुढगणजोग्गे ॥ उज्जाणघरे गिरिकंदरे गुहाए व सुण्णहरे ॥ ६५.८ ।। निषिहाः संवृतद्वाराः सुप्रबेशधिनिष्कमाः ॥
सकवाटा लसत्कुञ्या बालसाचितताः ॥ १६२।। विज्ञयोदया-घणकुठे नाव । समयां कपाटराखिने । गामहि रामबाह्य देशी बालबुद्धगण जोग्गजालाना वृद्धानां गणस्य चतुर्विधस्प यो उद्यानरहे । गुद्दाप गुहायो । बा मुष्णाबरे पटना । संथारी होदिति क्रियापदाधिसंयधः॥