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________________ दाराधना! ५१ सुहसीलदा परिवता " इस गाथा के मरूपण में आचार्य महाशय आगे कहेंगे. स्वाध्याय और श्रुतभावनाके जो पांच भेद है उसमें जो हमेशा परिणति करता है वह चारित्रमें परिणत हो जाता है. श्रुतभावनाके प्रभावसे आत्माका ज्ञान, दर्शन, तप और संयम ये पक्काबस्थाको प्राप्त कर लेते हैं. "सुदभावणार गाणं दंसण तब संजमं च परिणमदि " इस भावनाकी महती आचार्य आगे कहेंगे. ज्ञान, दर्शन, तप आदिमें परिणति होनाही उपयोग है. चारित्राचरण करते समय जो अतिचार होते हैं उसकी पश्चात्तापपूर्वक निंदा करना यह आलोचना है. आलोचना में अकर्तव्यों का परिहार करनेमें आत्माका उपयोग लगता है अतएव ऐसे उपयोगको चारित्र कहना अयोग्य नहीं हैं, जब मुनिको चारित्र पालते समय दोष लगते हैं तब मन वचन योगसे मैंने हा! दुष्ट कार्य किया कराया न करने बालको अनुरोद दिया, यह किला ऐसा उनके आत्माका परिणाम हो जाता है, और उस समय बे अतिचारोंसे पराङमुख होते हैं अतः ऐसे आत्मपरिणामोंको प्रतिक्रमण कहते हैं. आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनोंके मेलको उभय कहते हैं. अतिचारको कारणीभूत ऐसे द्रव्य, क्षेत्र और कालादिकसे मनसे पृथक रहना अर्थात् दोषोत्पादक द्रव्यादिकों का मनसे अनादर करना यह विवेक है. यह भी आत्माका परिणामही है. जिसका त्याग करना कठिन है ऐसे शरीरसे ममत्व दूर करना अर्थात् यह शरीर मेरा नहीं हैं और न मैं शरीररका स्वामी हूँ ऐसी जो भावना उसको व्युत्सर्गे कहते हैं. अर्थात् परिग्रहत्यागके प्रति जो उपयोग है उसको व्युत्सर्ग कहते हैं. यह प्रतिक्रमणादिरूप परिणाम चारित्ररूप हैं. अनशनादिक तप चारित्रके परिकर हैं ऐसा उपर कहा हैं. अतिचारसहित चारित्र अचारित्र है ऐसा बुद्धी से निश्चित कर आत्मामें चारित्रकी वृद्धि करना, वंदना करना, खड़े होना इत्यादि क्रियाअमि असंयमका परिहार करके प्रवृत्त होना यह सब चारित्रका परिकर है. मुनित्रत लेना अर्थात् दीक्षा धारण करना यह भी चारित्रोपयोग हैं. विनयके पांच प्रकार हैं. ज्ञान विनय और दर्शन विनयं ये ज्ञान व दर्शन के सहायक हैं. और उनके प्रति उपयोगरूप होनेसे ज्ञान और दर्शनसे थे अभिन्न हैं. पांचो इंदियोंके स्पर्श रसादिक विषयोंका त्याग तथा रागद्वेषका और कषायका त्याग इनका चारित्राराधना अंतर्भाव होता हैं, अयोग्य वचन और शरीरकी अयोग्य चेष्टाओंका त्याग करना, जाना, बोलना, आहारा लेना पदार्थोंका ग्रहण करना इत्यादि कार्यों में पापरहित प्रवृत्ति करना ये सब चारित्रोपयोग हैं. अतः इस चारित्र विनयका चारित्र अंतर्भाव होता है. जो तपसे श्रेष्ठ हैं ऐसे मुनिओमें तथा तपश्चर्या में आदर रखना, किसीकी आवास:" १
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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