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नाराधना
आश्वासः
चारित्रे तपसोऽन्तर्भावो भाज्यते |
मूलारा-उज्जमो उद्यमः | आउंजणा उपयोग: अनुष्ठानमित्यर्थः। सो चेय आर्षे प्राकृते पचनादिव्यत्ययस्य बहुलं दर्शनात् । सो इत्यनेन उद्यमायोजने परामश्यते । तेन ते एव चरणोद्योगोपयोगावेवेत्यर्थः । असदं अशाठय। चरंतस्स प्रवर्तमानस्य मायाहीनमनुपानं कुर्वतः इत्यर्थः | व्यक्तमुख एव हि चारित्ने प्रयतते इति । तदुनामस्तायाद्वाहा तपो भवति तदारंभे परिकरत्यात् । चारित्रपरिणामोऽन्तरंग तपो भवति । प्रायश्चित्तादीनां दुष्कृति निराकृतिपरत्वेन तदन्यतिरेकान् । आर्या
त्यक्तसुखोऽनशनादिमिरुत्सह कृत इत्यय क्षिति ।।
प्रायश्चित्तादीत्यपि चरणेन्तर्भवति तप उभयम् ॥ वृत्तं वा--
कृतमुखपरिहारो वाइते यश्चरित्रे न सुख निरत चिसस्तेन यावं तपः स्यात् ॥ परिकर इह वृत्तोपक्रमेणात्र पाएं क्षिपत इति सदेमेश्यति मूने तमोऽन्तः।।
चारित्राराधनामें शान और दर्शनका ही अन्तर्भाव आपने दिखाया है तपका नहीं दिखाया इस शंकाका उत्सर आचार्य आगे की गाथामें देते हैं---
अर्थ-चारित्रमें जो उद्योग और उपयोग किया जाता है जिनेंद्र भगवान उसकोही तप करते हैं. यह तप आराधना जिसने मायाका त्याग किया है उसको होती है. अर्थात् माया-कपटाचरणका त्याग कर चारित्रमें उद्योग करना तथा उसमें उपयोग लगाना यही तप है. ऐसा इस गाथाका भावार्थ है.
विशेषार्थ---अकर्तव्य अर्थात् मिथ्यात्वादिकका त्याग करने में जो प्रयत्न करना उसको यहां उद्योग कहते है. जिसने सुखासक्तिको छोड़ा है वह ही चारित्रमें प्रयत्न करता है. ऐसे प्रयत्नशील मुनिराजको बाह्य तप चारित्रप्रारंभ करने के लिये सहायप्रदान करता है. अर्थात् अनशनादि वाद्य तप चारित्रका सहकारी परिकर है. इस बाह्य तपके पालनसे मुनिवर्यकी सब प्रकारकी सुखासक्ति नष्ट होती है. यही अभिप्राय “बाहिरतवेण होदि खु सब्बा
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