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________________ मूलाराधना ११२० न दोषश्वापत्रे भीमे वंचनागहने यतिः ॥ नश्यति स्त्रीsarकपादपेऽशुचितातृणे ॥ ११४७ ॥ विजयोदया मायागणे यथा गहनं परेषां दुःप्रवेशं एवं मायापि परैर्दुरधिगमेति मायापि गहनमित्युच्यते । मला बहवो दोषा बहुदोषाः असूया, पिशुनता, चपलता, भीरुता, नितरां प्रमत्तता येत्येवमादयस्त श्वापदा यस्मिन् । अलिंगदुमगणे यथा दुम महाननेकशाखोपशाखाकुलध नालीकता द्रुमगणो यस्मिन् । भीमे भयंकरे । अशुचितणिले अशुचितृणकुले । यतयो न विप्रणयन्ति स्त्रीवने ॥ योषिदव्यामविभ्राम्यतः साधून्प्रकाशयति मूलारा----मायागढ़गे मायैव परमदुर्गमत्वाद्नं लतादिगुल्मजालं यत्र । बहुदोसमाचदे बहवो दोषाश्वासूयाचापलभीत्वप्रमत्तन्वादयः । ते श्रापदा व्यामादयो यन्त्रानिवारितपरस्त अलगणे अलीक्रमसत्यं वच स्तदेव द्रुमगणा यत्र अनेकशाखोपशाखाकुलान । अशुचिनगिले अशुचीनि देहांगोपांगानि तान्येव तृणानि निरंतर प्रसृतत्वात् तैर्युक्ताः । ण विप्पणाति न विभ्राम्यन्ति । दिङ्मूढा न भवन्तीत्यर्थः । ८ अर्थ - यह स्त्रीधन मायासे गहन हुआ है अर्थात् जैसे गहन वनमें प्रवेश करना कठिन है वैसा इस मायाका स्वरूप जाननामी बडा कठिण है अतः माया भी गहन कहलाती है. इस स्त्रीवन में यह माया गहन है. जैसे बन सिंहव्याघ्रादि क्रूर प्राणिसे व्यास रहता है वैसे स्त्रीवन भी अनेक दोषरूप श्वापदोंसे व्याप्त हुआ है. इस स्त्रीवन में असूया - दूसरोंके गुण सहन न होना, चुगली करना, चंचलपना, डरपोकपना, और अत्यंत उन्मत्तता इत्यादि दोपरूप क्रूर प्राणी इस स्त्रीवनमें विचरते हैं. जैसे वृक्ष बडा होता है. उसको शाखा उपशाखाए रहती हैं. वैसे स्त्रीवन में असत्य भाषणरूप वृक्ष अपनी अनेक शाखा उपशाखाओंसे पद गये हैं. यह स्त्रीवन भयंकर है. इसमें अपवित्रतारूपी तृण ऊगता है. परंतु ऐसे स्त्रीवन में जितेन्द्रिय तपस्वीगण दिवमूढ नहीं बनते हैं । ) सिंगारतरंगाए विलासवेगाए जोब्वणजलाए ॥ विहसियफेणार मुणी णारिणईए ण बुझति ॥ ११११ ॥ बाबा ६ ११२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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