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________________ मूलाराधना १६६४ एकत्र होती है. परंतु स्नेहके हरनेसे धूली के कण बिखर जाते हैं उनका बंधन नही रहता है. पानी बालुका पिंड बनता है परंतु पानी सूख जानेपर वालुके कण अलग होते हैं, वैसी स्नेहशक्ति तपसे नष्ट होनेपर कर्म आत्मासे अलग होता है अर्थात् पुगलका कर्मत्वपय नष्ट होता है. धादुगर्द जह कणयं सुझइ धम्मंतमग्गिणा महदा || सुज्झइ तवग्गितो तह जीवो कम्मधादुगदो ॥ १८५३ ॥ तपसा मायमानोऽङ्गी क्षिप्रं शुद्धयति कर्मभिः ॥ पाषाणः पावकेनेव कानकः सकलैर्मलैः ॥ १९२५ ॥ विजयोदया - धादुगदं यथा सुवर्णपानगतं कनकं महतासिना दह्यमानं शुध्यति, मलात् पृथग्भवति तथा जीवः कोऽमिना रामानः शुध्यति ॥ सपसा शुद्धस्वास्मनि दीप्यमानस्यात्मनः कर्मभ्यः पृथग्भावं भावयति - मूलाराधादुदं सुवर्णपाषाणस्थे । सुन्झवि प्रथग्भवति । धम्मंतं वाप्यमानं । तत्ररिंगधतो तपोऽमि नाध्मातः शुद्धस्वचिद्रूपे देदीप्यमानः कृतः । तपसा ध्यायमानोऽगी क्षिप्रं शुष्यति कर्मभिः ॥ पाषाणः पावकेनेथ कानफः सकलैः ॥ अर्थ - महान् अग्निसे दग्ध होनेपर जैसे सुवर्णपाषाणमेंसे सुवर्ण शुद्ध होता है अर्थात् मलसे अलग होता है. वैसे कर्मरूपी घातुओंसे मित्र हुआ यह जीवरूपी सुवर्ण तपरूपी अग्निसे जब दग्ध होता है तब वद निर्मल होता है. यद्येवं तप एषानुष्ठातव्यं किं संवरेणेति शंकां निराकरोति तवसा चैव ण मोक्खो सेवरहीणस्स होइ जिणत्रयणे || सोचे पविते किसिणे परिसुस्सदि तलायं ॥ १८५४ ।। मोक्षःसंवरहनिन तपसा न जिनागम ॥ रविणा शोष्यते नीरं प्रवेश सति किं सरः || १९२६ ॥ आश्वासः ७ १६६४
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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